Pages

Friday, October 18, 2013

(76) स्‍वरोजगार

स्‍वरोजगार


एक तँ अहुना शिक्षण संस्‍थानक वातावरण देखि रविशंकरक मन कौलेजक पढ़ाइसँ उचटि गेल, तैपर परसुका कि‍रि‍या-कलाप तँ आरो मनकेँ तोड़ि‍ देलकै। भेल ई जे कौलेजमे वि‍श्ववि‍द्यालय स्‍तरक परि‍चर्चा छात्र सबहक बीच भेल जइमे रवि‍शंकरकेँ आमंत्रि‍त नै कएल गेलै। बनल-बनाएल परि‍चर्चाक दि‍शा ि‍नर्देश, बनल-बनाएल कर्ता-धर्ता आ बनल-बनाएल पाठक सुनि‍नि‍हार। आमंत्रि‍त नै करैक कारण रहै जे कौलेजक वातावरणमे ओ चुप्‍पा बताह आ गोंग बूझल जाइत। जइसँ संगी-साथीक बीच अधि‍ककाल रवि‍शंकरक बतहपनीए चर्च होइत। जहि‍ना बघबा खाए वा नै खाए लोहारक लोहराइन महकबे करत, तहि‍ना रवि‍शंकरोक रहए। एकटा अवगुण रवि‍शंकरोमे जरूर रहै जे हाइ स्‍कूलमे जेते वि‍षय पढ़ने छल ओते वि‍षयसँ सम्‍बन्‍ध बनौनहि‍ रहि‍ गेल। ऐ बातकेँ मनसँ हटा नेने छल जे हाइ स्‍कूलक कि‍छुए वि‍षय कौलेजमे रहि‍ जाइ छै, सेहो दि‍नो-दि‍न घटि‍ते चलि‍ जाइ छै। अही सीमाक उल्‍लंघनक चलैत छात्रे नै शि‍क्षकोक बीच चर्च रहए। जखनि‍ कि‍ रवि‍शंकरक स्‍पष्‍ट समझ रहै जे भाषा कामधेनु छी। जे सदि‍काल दूध दऽ सकैए। एकर माने ई नै जे नि‍मुआन धन बूझि‍ ओकर दुरूपयोग होइ। ओतबे शब्‍दक प्रयोग नीक होइ छै जेतेसँ वि‍चारक माध्‍यमसँ वि‍षय गति‍मान बनै छै। भाषा ओहन धार होइए जेकरा पार करैमे घटवारकेँ घटवारि‍ नै दि‍अ पड़ै छै।
वि‍श्ववि‍द्यालयक परीक्षाक अधडरेड़ेपर छोड़ि‍ रवि‍शंकर अपन सभ वस्‍तु समेटि‍, लगक जे कि‍ताब-काैपी रहै ओकरा अलग छँटिया, दोसराक संग जे लेन-देन रहै ओकरो फड़िया, पुस्‍तकालयक सेहो फड़िया, पड़ोसक लेन-देन सबहक मुँहमि‍लानी कऽ बि‍ना कि‍छु केकरो कहने रूमक चाभी भागेसरकेँ सुमझा जहि‍ना यागवल्‍क गुरुआइसँ दुनू पत्नीओ धरिकेँ छोड़ि वि‍दा भेल छला तहि‍ना वि‍दा भऽ गेल। ओना भागेसर मात्र गौअँए रूमेट नै दि‍यादि‍क संग खानदानी सेहो। तथापि‍ ने रवि‍शंकर कि‍छु बाजि‍ अपन बेथा भागेसरकेँ सुनबए चाहैत आ ने भागेसर कि‍छु बाजए। नै बजैक कारण भागेसरकेँ बुझले रहै जे गणेशजी जकाँ कभग्‍गू अछि‍ए जेमहर नजरि‍ गेलै तेम्‍हरे जनकक हरबाहि‍सँ मूसक राखल मुसहनि‍ तक खुनि‍ कऽ नि‍कालि‍ लैत, जेमहर नै गेल तेमहर हाथी आँखि‍ जकाँ लूब-लूबबैत रहलौं। ओसारसँ नि‍च्‍चाँ उतरि‍ते पाछूसँ भागेसर पुछलकै-
रवि‍ भाय, आगूक की कार्यक्रम अछि‍?”
जहि‍ना गणेशजीक मन सदि‍काल एकेरंग रहैत तहि‍ना रवि‍शंकर बाजल-
अखनि‍ वि‍चार मनमे अछि‍। गाम जाएब समाजक संग परि‍वारकेँ देखब दुनू बापूत मि‍लि‍ वि‍चारब जे केना बाप-दादाक लगौल फुलवाड़ी आरो हरिआइत रहत तखनि‍ ने।
  एक दि‍स रवि‍शंकर डेग बढ़ौलक दोसर दि‍स भागेसर पल्‍ला झाड़लक जे सभ दि‍नक एके रंग बूड़ि‍वाण रहि‍ गेल। जा जे कपारमे लि‍खल छह से कि‍यो बाँटि‍ लेतह। खैहनु चेतानन्‍दक कपार।
कौलेजक हातासँ नि‍कलि‍ते रवि‍शंकरक मनमे घौंदा जकाँ प्रश्न लुलुकि गेलै। बि‍औहता बर आ दुरगमनि‍याँ कनि‍याँ जकाँ मनमे समस्‍याक सोहरी लगि‍ गेलै। मुदा जहि‍ना छोट बच्‍चाकेँ कि‍यो दुलार कऽ कना दइ छै आ ओ अपना माए लग जा कहै छै, ‘फल्‍लाँ मार’, तहि‍ना सभ प्रश्नकेँ छँटिया रविशंकरक मन परसुकाकेँ आगूमे रखलक। की हम परि‍चर्चामे अपन वि‍चार व्‍यक्‍त करैबला नै छी? भऽ सकैए जे जे वि‍चार हमर अछि‍ ओ दोसरोक होइ, मुदा सेहो तँ सुनला पछाति‍ए ने बुझि‍तौं। नहि‍येँ बजि‍तौं मुदा जँ आनोक मुँहसँ सुनि‍तौं तैयो तँ मनमे सबूर हेबे करैत, सेहो ने भेल। ने बजनि‍हारे भेलौं आ ने सुनि‍नि‍हारे।
  रवि‍शंकरो आ भागेसरो संगे दुनू ब्रह्मपुर हाइ स्‍कूलसँ मैट्रि‍क पास कऽ राजधानीक एक्के कौलेजमे नाओं लि‍खौलक। ओना पढ़ैमे रवि‍शंकरक अपेक्षा भागेसर हल्‍लुक मुदा मैट्रि‍कमे बेसी नम्‍बर भागेसरेकेँ आएल छेलै, जे सुनि‍ए कऽ रवि‍शंकर रहि‍ गेल। वि‍चारि‍ नै सकल जे जखनि‍ भागेसर दब अछि‍ तँ ओकर नम्‍बरो ने दबे अबि‍तै। बाल-बोध मन रवि‍शंकरक, एतबे बुझलक जे परीक्षा तँ शि‍कार करब भेल। अनाड़ीओ शि‍कारीकेँ बेसी शि‍कार हाथ लगै छै आ जीवनीओकेँ कम। ई नै बूझि‍ सकल जे जहि‍ना खेतमे जोत-कोरसँ फसल लगबै धरि‍ वा बाँस-खढ़-खरहीसँ घर बन्‍है धरि‍ कोनो पेंच-पाँच नै होइ छै, पेंच-पाँच होइ छै फसल लगला पछाति‍ आ घर बन्‍हला पछाति‍। अपन रोपल अपने खा दोसरोकेँ खुआबी आकि‍ अपने पुराबी आकि‍ अनके रोपल खाइ। भागेसरमे एकटा वि‍चार जरूर अछि‍ जे रवि‍शंकरकेँ श्रद्धाक नजरि‍सँ जरूर देखैत। मुदा से सेझहामे, परोछमे वि‍चारक दूरी एते लतड़ि‍ गेल छेलै जे जड़ि‍सँ मुड़ीक दूरी देखबे ने करै। ओना हाइ स्‍कूल धरि‍ दुनूमे (रवि‍शंकर आ भागेसर) एते दूरी नै बनल छेलै जेते कौलेजमे आबि‍ बनलै। तेकर कारणो भेल जे जहि‍ना रवि‍शंकर अध्‍ययनमे खिंचाइत एकाग्रता दि‍स बढ़ैत गेल तहि‍ना भागेसर देखा-देखीक अनुकरण करैत दोसर दि‍स बढ़ि‍ गेल। तइसँ नजरि‍मे दोष आबि‍ गेने बुझबे ने करैत जे छबड़दानी अपने सुरक्षि‍त पानि‍क तरमे रहि‍ छबड़ाकेँ कहैत जे ऊपरेमे छि‍औ।
  ओना पटना अबि‍ते दुनू गोरे एक्के लाैजमे रूम भाड़ा लेलक। मुदा भड़ैते बनैकाल रवि‍शंकर बाजल रहए-
गौआँ छोड़ि‍ दोसरकियो रूममे नै आबि‍ सकैए।
अखनि‍ तँ भागेसरो एक पुरखि‍याहे छल संगीक जरूरति‍ बूझि‍ बाजल रहए-
बड़बढ़ियाँ।
  माथपर मोटरी नेने डेग आगू दि‍स बढ़ैत, मुदा मनमे बेर-बेर पानि‍क हि‍लकोर जकाँ रवि‍शंकरकेँ उठैत जे वि‍श्ववि‍द्यालय स्‍तरक कार्यक्रम भेल, बेक्‍ती-वि‍षेषक नै छल, तखनि‍ कि‍ए ने बुझलौं। ने प्रश्नक जड़ि‍ भेटै आ ने वि‍चार आगू बढ़ै। मुदा तैयो बाढ़ि‍क पलाड़ी जकाँ बहबे करै। मन बहकलै, इन्‍दि‍रा आवासक जेकरे पक्का घर रहै छै हथि‍याक झटकीमे खसल घरक अनुदानो तेकरे भेटै छै। सएह ने तँ भेल। की अहि‍ना भोजे-भातक शि‍क्षण संस्‍थान बनल रहत? धू:! अनेरे मनकेँ बौअबै छी। ठीके लोक बताह कहैए। एहने-एहने घतहपनी साेचने ने लोक बताह होइए। अनेरे हमरे कि‍ए एते सोग अछि‍। जानए जअ जानए जत्ता। लसि‍गर होइ आकि‍ खढ़हर से ओ जानए। हमहीं की बजि‍तौं जे अनेरे माथ धुनै छी। बड़ बजि‍तौं तँ यएह ने बजि‍तौं जे साहि‍त्‍य जगतमे मध्‍यकालीन युग स्‍वर्णिम रहल। भक्‍ति‍मय साहि‍त्‍यक सृजन एते कहि‍यो ने भेल। मुदा भक्‍ति‍ साहि‍त्‍यक पछाति‍ वैराग्‍य अबैत आकि‍ श्रंृगार? एबाक चाहै छल वैराग्‍य से नै आबि‍ श्रृंगार आबि‍ गेल। समैओ मुगले शासनक छल। मि‍थि‍लांचलक कि‍सानक सुदि‍न नै दुर्दिन छेलै। बीससँ तीस रौदी प्रति‍ सदी होइत आबि‍ रहल छेलै‍। बाढ़ि‍-झाँट छोड़ि‍ कऽ। तैसंग बड़का-बड़का भुमकमो भेल। आजुक संचार नै, दू-गाम चारि‍ गाम पसरैत-पसरैत अवाज वि‍लीन भऽ जाइ छल। ने धार-धूर आजुक छी जे आबे बाढ़ि‍ अबैए आ पहि‍ने नै अबै छल। खैर छोड़ू। रौदीक मारि‍सँ जे परि‍वार नष्‍ट भेल, वा गाम छोड़ि‍ कऽ जे भागल, तेकरा छोड़ि‍ कऽ। जे इमानदार कि‍सान छला ओ मिसिओ भरि‍ ओइ सभ प्रकोपसँ डोलला नै। मातृभूमि‍क माटि‍-पानि‍मे अपनाकेँ समरपित केने रहला। भलहिं एक रौदीक मारि‍ पाँच बर्खमे कि‍ए ने भरपाइ करए पड़ल रहल होन्‍हि‍। एकाएक रवि‍शंकरक वि‍चार आगू बढ़ल। वि‍श्ववि‍द्यालय सर्वोच्‍च शि‍क्षण संस्‍थान छी। जे मि‍थि‍लांचल ऋृर्षि-मुनि‍क बासस्‍थल अदौसँ रहल आकि‍ ओतबे गनल-गूथल छथि‍ जेतेकेँ द्वारि‍का छाप भेट गेल। वि‍श्ववि‍द्यालयक दायि‍त्‍व बनैत अछि‍ जे जि‍नकर रचना दि‍वारमे सड़ि‍ गेलनि‍ पानि‍क चुबाटमे गलि‍ गेलनि‍ ओहनो-ओहनो रचनाकारक खोज हुअए।
  गामक सीमानपर अबि‍ते रवि‍शंकरकेँ भागेसर मन पड़ल। मन पड़ि‍ते बुदबुदाएल-
गौआँ-घरूआ रहने भागेसर बहुत उपकार केलक। ओकरे केने कौलेजक पुस्‍तकालयसँ सम्‍बन्‍ध बढ़ल। नै तँ तेहेन-तेहेन लुटि‍हारा सभ अछि‍ जे कि‍ताबक कोन चर्च जे आलमारीओ उठा कऽ लऽ जाइए। जँ ओ नै रहि‍तए तँ की अपने बुते ओते भीतर तक जा सकै छेलौं। ओकरे पाबि‍ ने सभ रंगक कि‍ताबसँ भेँट भेल। जि‍नगी भरि‍ ओकर उपकारकेँ नै बि‍सरब।
  रवि‍शंकरकेँ पटना छोड़ि‍ते भागेसर अपना पत्नीकेँ मोबाइलसँ कहि‍ देलक जे रवि‍शंकर बताह भऽ गेल। गाम अबैसँ पहि‍ने तेना चालनि‍मे दऽराधा चाललनि‍ जे सौंसे गाम पसरि‍ गेल, रवि‍शंकर बताह भऽ गेल। तहूमे चुप्‍पा बताह। कखनि‍ की कऽ देत तेकर ठेकान नै। काने-कान सौंसे गाम बीआवान भऽ गेल। ओना ई बात नै परोछ रूपे चेतानन्‍दोक कान तक पहुँचलनि‍ मुदा सोझहा-सोझही नै भेने अनेरे सुनलाहा बातक पाछू जाएब उचि‍त नै बूझि‍ चुपे रहला। कौआ कान नेने जाइए, तइले कौआकेँ खेहारैसँ नीक अपन कान देखब होइ छै। ओना पोखरि‍क पानि‍ जकाँ असथि‍र चेतानन्‍दक परि‍वार तँए चि‍ड़ैक एक लोल पानि‍ उठौने हि‍लकोर नै उठैत।
  दलानक ओसारपर मोटरी रखि‍ रवि‍शंकर हि‍या-हि‍या चारू दि‍स ताकए लगल जे अपन हाजि‍री तँ दर्ज करबैक अछि‍।
कनीए पछाति‍ चेतानन्‍द बाड़ी दि‍ससँ एला। अबि‍ते रवि‍शंकरकेँ पूछि देलखि‍न-
बाउ, नीके छेलह कि‍ने?”
जहि‍ना बि‍नु बोलक बच्‍चा माए-बापक बोल सुनि‍ हँसि‍-कानि‍ अपन बात कहैत तहि‍ना रवि‍शंकर मुस्‍की भरि‍ उत्तर दैत गोर लगलकनि‍। गोर लागि‍ रवि‍शंकर अपन वस्‍तुजात सेरि‍याबए कोठरी दि‍स वि‍दा भेल।
  समाजक बीच अनेको सुआदक (तीत-मीठ-खट्टा) बात-वि‍चार हवा-बि‍हाड़ि‍ जकाँ वातावरणमे पसरैत रहै छै। बात कोन आवरणमे पसरि‍ रहल अछि‍ ओ बूझब बाल-बच्‍चाक खेल नै छी। एहनो तँ होइते अछि‍ जे पहि‍ने दीक्षे छि‍टाइत अछि‍ शि‍क्षा हरा जाइत अछि‍। खैर जे होउ, चेतानन्‍दक मनमे उठलनि‍ जे काल्हि‍सँ जे गाममे बीआबान भेल अछि‍ ओकर मुड़ी पहि‍ने देख ली। जँ रखै जोकर हएत राखब नै तँ मचोड़ि‍ कऽ तोड़ि‍ कातमे फेक देब। आगू ससरि‍ते मनमे उठलनि‍ एक तँ ओहि‍ना रस्‍ताक झमारल रवि‍शंकर अछि‍ तैपर कौलेजमे पढ़ैए। कौलेजीआ छौड़ा सबहक जे चालि‍ देखै छि‍ऐ से कि‍छु ने फुड़ाइए। जँ कहीं रवि‍शंकरो ओहि‍ना करए। मुदा कानमे नहि‍योँ देब हमरा लेल उचि‍त नै भेल। पि‍ते नै आदि‍गुरु सेहो छि‍ऐ। ओकर नीक-बेजए नै बूझब बाल-बोधक संग अन्‍याय हएत। कोनो जरूरी छै जे नीक बात सभकेँ अधले लगै, कि‍छु के नीको तँ लगबे करै छै। छातीपर पाथर रखि‍ चेतानन्‍द बजला-
बाउ, लोकक मुहेँ सुनै छी जे तोँ बताह भऽ पढ़ाइ छोड़ि‍ गाम चलि‍ एहल हेन! से की बात छि‍ऐ?”
पि‍ताक प्रश्न सुनि‍ रवि‍शंकर मिसिओ भरि‍ वि‍चलि‍त नै भेल। जहि‍ना पोखरि‍क असथि‍र पानि‍, काह-कूह नि‍च्‍चाँ बैसि‍ गेने परीच्‍छ रहै छै तहि‍ना रवि‍शंकरक मन असथि‍र। बाजल-
बाबूजी, एक संग तीनटा प्रश्न उठा देलिऐ। उत्तर बेराबेरी देब। पढ़ाइ छोड़ि‍ कऽ कि‍ए एलौं। बहुत बेसी तँ अखनि‍ धरि‍ नै पढ़लौं जे भरि‍पोख उत्तर देब। मुदा एते जरूर बुझलौं जे अपन जि‍नगी अपने हाथमे लऽ कर्मकेँ धर्ममे प्रति‍ष्‍ठि‍त कऽ सकै छी। नै तँ मुँह कि‍म्‍हरो बोल कि‍म्‍हरो बनल रहैए। अपन जि‍नगी अपना हाथमे लऽ क्षमतानुसार अपनो आ दोसरोक सहयोग करि‍ऐ। मुदा सहयोगोक सीमा छै। जखनि‍ मनुख अपन सीमांकन कऽ चलत तँ ओहन सहयोगक बेगरते नै रहि‍ जाइ छै। मुदा बेकतीसँ परि‍वार, परि‍वारसँ समाज, देश-दुनि‍याँ बनैत, तँए बढ़ैत चलबे ने जि‍नगी छी।
  चेतानन्‍दकेँ बतहपनीक आभास नै भेलनि‍, तँए दोहरा कऽ बतहपनी शब्‍दक प्रयोग करब नीक नै बुझलनि‍। पि‍ताक बात छि‍ऐ जँ कहीं उनटे रोपा जाए। शब्‍द तँ मनसँ उचरैत अछि‍। तँए अशुभकेँ शुभ बनाएब उचि‍त भेल, मुदा शुभकेँ अशुभ बनाएब केना उचि‍त हएत? अपनो नीक हएत जे जुआन बेटा भेल, सरकारो मानीए नेने हेतइ, तँए अपना अधि‍कार आ कर्तव्‍यकेँ हमहीं कि‍ए रोकबै। हँ तखनि‍ बि‍आह कराएब पछुआएल अछि‍ से कराबै धरि‍ भार अछि‍। लेत अपन घर-परि‍वार, सर-समाज। साठि‍ बर्ख नहि‍येँ पूरल हएत तइले कि‍ए बैसल रहब। से नै तँ एकटा आरो बात पूछि‍ए लि‍ऐ। पुछलखि‍न-
बौआ, गाममे रहि‍ करबह की? पढ़ि‍-लि‍खि‍ सभ नोकरी-चाकरी करैए आ तूँ?”
गंभीर होइत रवि‍शंकर बाजल-
बाबू, अखनि‍ गामक असली रूप बुझैमे कनी बाँकी रहि‍ गेल अछि‍ तँए अखनि‍ कि‍छु ने कहब।
की असली रूप?”
गामक माटि‍-पानि‍क लम्‍बाइ-चौड़ाइ की छै, अपना केते अछि‍, गाममे परि‍वार केते छै इत्‍यादि‍। कि‍छु बुझैक बाँकी अछि‍ से बूझि‍ गेला पछाति‍ अपन योजना आगूमे रखि‍ अहूँक वि‍चार लेब।‍
  रवि‍शंकरक वि‍चार सुनि‍ चेतानन्‍द ठमकि‍ गेला। मनमे रंग-रंगक वि‍चार उठए लगलनि‍। की योजना? कोनाे कि‍ सरकारी कारोबार छी जे योजना बनौत। मुदा धाँइ दऽ नै मानब उचि‍त नै हएत। भलहिं बीकछा कऽ पूछि‍ लेब अलग भेल। तहूमे कौलेजमे पढ़ैए, जँ कहीं कि‍ताबक भाषा बाजल हुअए। तखनि‍? से नै तँ नीक हएत जे अखनि‍ रवि‍शंकरोक मन थीर नै हेतइ ताबे ओहो थीर होइए, तैबीच अपनो अधखरूआ काज पूरा लइ छी। ओहो नि‍चेन हएत अपनो नि‍चेन हएब तखनि‍ खरि‍यारि‍ कऽ बूझि‍ लेब।
  बेरका समए। चाह पीब चेतानन्‍द रवि‍शंकरकेँ चाल पाड़लनि‍। अबि‍ते रवि‍शंकर पुछलकनि‍-
कि‍ए सोर पाड़लौं?”
चेतानन्‍द बजला-
तखुनका बात नीक जकाँ नै बुझलौं?”
रवि‍शंकर बाजल-
जाबे धरि‍ गामक माटि‍-पानि‍, गाछ-बि‍रि‍छ, माल-जालक संग परि‍वारकेँ नै बूझि‍ लेब, ताबे अपन सीमा-सरहद नीक जकाँ नै बना सकै छी।
माटि‍-पानि‍, गाछ-बि‍रि‍छ इत्‍यादि‍ सुनि‍ चेतानन्‍द बजला-
ई कोन बड़का उलझन भेल जे तूँ ओझराएल छह। सात सए बीघाक गाम अछि‍, एगारहटा पोखरि‍ अछि‍। इनार तँ मरि‍ये गेल अछि‍। दूटा बाट गाममे अछि‍। जे दुनू मि‍लि‍ चौराहा बनल अछि‍। एकटा पूबे-पछि‍मे अछि‍ आ दोसर उत्तरे-दछि‍ने। तैसंग पाँच सए परि‍वारो अछि‍।
चेतानन्‍दक वि‍चार सुनि‍ रवि‍शंकर बाजल-
बाबू, जे बात नै बूझल छल से बुझलौं। कनी थमहू, कागतपर लि‍खि‍ लेब नीक हएत।
कागत-कलम आनि‍ रवि‍शंकर बाजल-
गामक रकबा केते अछि‍?”
सात सौ बीघा।
परि‍वार केते अछि‍?”
पाँच सौ।
अपना केते जमीन अछि‍?”
साढ़े पाँच बीघा।
तखनि‍ तँ परि‍वारक हि‍साबसँ बेसी अछि‍?”
हँ से तँ अछि‍ए। तँए कि हम बेसी खेनि‍हार छी?”
बेसी खेनि‍हार सुनि‍ रवि‍शंकरक मन ठमकल। मुदा जखनि‍ चोर-मोट सोझहेमे अछि‍ तखनि‍ पुछि‍ए लेब नीक हएत। पुछलकनि‍-
बेसी खेनि‍हार माने?”
चेतानन्‍द कहलखि‍न-
बाउ, अपनो मनमे अछि‍ जे जेते खेतमे काज केनि‍हार छथि‍ हुनका सबहक बीच एक रंग खेत होन्‍हि‍, जइसँ श्रमक प्रति‍योगि‍ता हएत। मुदा जेकरो बटेदारी, भूदानी खेत भेलै, सेहो सभ कि‍यो भरना लगा तँ कि‍यो केबाला कऽ दि‍ल्‍ली–बम्‍बै धेने जा रहल अछि‍। तैसंग जि‍नका बेसी छन्‍हि‍, ऊहो नोकरी-चाकरी करए चलि‍ गेल छथि‍, गामक खेत तँ आेहने परती बनि‍ गेल अछि‍ जेहेन उजड़ल गाम होइ छै। तखनि‍ तोहीं कहऽ जे की कएल जाए?”
प्रश्नकेँ ओझराइत देखि‍ रवि‍शंकर बाजल-
पहि‍ने अपन समए आ खेतीक मि‍लान करए दि‍अ, तखनि‍ फेर आगू गप करब।
उत्‍सुक होइत चेतानन्‍द बजला-
हँ, हँ, नीके सोचै छह। कोनो काज करैसँ पहि‍ने बूझि‍-जानि‍ लेब बेसी नीक होइ छै।
रवि‍शंकरक जि‍ज्ञासा देखि‍ चेतानन्‍दकेँ खुशी भेलनि‍। मनमे उठलनि‍, ‘नै दुनि‍याँ तँ कम-सँ-कम अपन परि‍वारक तँ सभ एक रंग खाएब, ओढ़ब-पहि‍रब, एकरंगक घरमे तँ रहब।’ यएह ने भेल परि‍वारक एकरूपता। ई तँ नै ने जे कुरसीपर बैसल बेटा बापकेँ कहत- ‘ऐ बूढा, कहाँ रहता है।’ मुदा जखनि‍ अकासे फाटि‍ गेल अछि‍ तखनि‍ दरजीक बपहारि‍ए कटने की हएत?
  साँझक समए। लालटेन नेसि‍ चेतानन्‍द दरबज्‍जाक चौकीपर चाह पीब असगरे बैसल रहथि‍। बाजाप्‍ता कागज कलम नेने रवि‍शंकरो आबि‍ बैसल। हाथमे कागज देखि‍ते चेतानन्‍द पुछलखि‍न-
बौआ, कथीक कागत-पतर छि‍अ?”
जहि‍ना कोनो काजकेँ पहि‍ने भूमि‍का बान्‍हल जाइ छै तहि‍ना भूमि‍का बान्‍हि‍ कागत खोलि‍ रवि‍शंकर बाजल-
बाबूजी, अपन कि‍सान परि‍वार छी।
कि‍सान परि‍वार सुनि‍ चेतानन्‍द बजला-
से तँ छीहे। जँ से नै छी तँ कि‍ए बड़को-बड़को कुरसीबला अपनाकेँ नि‍धोख कि‍सान परि‍वार आ कि‍सानक बेटा बजैए।
मुस्‍कीआइत रवि‍शंकर बाजल-
पहि‍ने सुनि‍ लि‍अ, तखनि‍ अपन वि‍चार देब। पानि‍ खेतीक प्राण छी। बि‍नु पानि‍क कि‍सानक जि‍नगी मुरदाक होइ छै। चारि‍ए मासक बरसात बारहो मासकेँ सजबैए। जँ हाथमे पानि‍ आबि‍ जाएत, तखनि‍ लत्ती जकाँ कि‍सानी पसरि‍ जाएत। तँए कि‍छु खेत बेचि‍ बोरिंग कराएब। खेतीक वि‍कसि‍त रूप बनबैमे जेते खर्च हएत ओ खेत बेचि‍ कऽ करब।
चेतानन्‍द मुड़ी डोलबैत बजला-
घर-परि‍वार सुमझाबैक अर्थ ई नै ने होइ छै जे वि‍चार रोकल जाए। जे मन फुरह से करह मुदा पाँच कट्ठा तीमन-तरकारीले हमरो बना दि‍हऽ देखै छी जे तेते ने लोक दबाइ दइ छै जे ओकर गुणे बि‍गाड़ि दइए। अपना हाथे उपजाएब मनसँ खाएब। अछैते औरुदे मरनाइओ नीक नै छी।
चुटकी लैत रवि‍शंकर बाजल-
घरक आगूओमे धनखेतीए रखने छी आ मन नि‍रोग तरकारीपर जाइए।
चेतानन्‍द कहलखि‍न-
अखनि‍ तूँ नै ने बुझबहक। ई खेत गोरहा छि‍अ। नहि‍योँ तँ बोरा कट्ठा भइए जाइए।
जइबेर रौदी भऽ जाइ छै?”
एते लोक हि‍साब जोड़त तखनि‍ काज चलतै।
तँए ने...?”
mmm

No comments:

Post a Comment