Pages

Friday, October 18, 2013

(71) चुप्‍पा पाल

चुप्‍पा पाल

गोसाँइ लुकझूक करैत। ओना छह बजि गेल मुदा सुरूज अपन दिनक यात्राक अंतिम पड़ावपर अँटकि तकिते छला। पतराएल काज रहने नीलकंठ काका सबेरे-सकाल निचेन भऽ गेल छला। जहिना परिवार मोटेलासँ काजो मोटाइ छै आ दुबरेलासँ काजो दुबराइ छै तहिना नीलकंठ काकाकेँ सेहो भेलनि। ओना परिवारक संस्कार आगू बढ़लनि मुदा काज पूरने काजो पतराइए। होइतो तँ तहिना ने छै जे जनम होइते संस्कारोक जनम होइ छै आ अन्त होइत अन्तो होइ छै। नीलकंठ काकाकेँ तेहने सन भेलनि। किए ने हेतनि, सोझहे लग्गीसँ घास खुएलासँ नै ने होइ छै जे आगू ताकब दादा-परदादा देखब आ पाछू ताकब तँ नाति‍-छेड़नाति‍ देखब। बाल-बच्चाक बि‍आह-दान भेने माए-बापक जिनगीक प्रमुख कर्म-धर्मक पूर्ति होइ छै जइसँ बाल-बच्चाक अपन दायित्व पूर्ति करै छथि। बेटा बि‍आहक आइ पनरहम दिन छेलनि। पैघ यज्ञसँ दुनू परानी मुक्ति पाबि‍ जहिना साबुनसँ वस्त्रक मैल साफ कएल जाइए तहिना माए-बापसँ लऽ कऽ बेटा-बेटीक परिवार बना जिनगीक मैलकेँ कमर्क साबुनसँ घोइ अपन मनक सफाइ लोक करै छाथि। नीलकंठ कक्काक मनमे उठलनि‍ जे बेटा-बि‍आहक अंतिम हिसाब जोड़ि किए ने काजक विसर्जन कइए ली। आब कि कोनो ओ जुग-जमाना रहल जे तीन-तीन-चरि-चरि मास गरदनिमे उतरी झुलि‍ते रहल। जे काज महज चारि-पाँच घंटाक छी। मन गबाही देलकनि जे से नै तँ आइ अंतिम हिसाब -बि‍आहक लाभ-हानि‍क- कऽ काजक विसर्जन कइए लेब। जहिना बोनैया हरिणक बच्‍चा पकड़ाइते चारूकात चौकन्ना हुअ लगैत तहिना नीलकंठ काकाकेँ भेलनि। काजसँ विश्राम होइते देखि सुचिता काकी हाँइ-हाँइ अपन काजक मुड़ी मोड़ि चाहक ओरियानक विचार मनमे अनलनि। किए नै अनती, ओहन जनाना थोड़े छथि जे पतिक विकलांत देखि ओइसँ बेसी अपने विकलांतता देखबए लगती। केतली-लोटा नेने कल दिस बढ़ली, मनमे उठलनि पहिने अपने हाँइ-हाँइ पएर धोइ लोटा-केतली अखाड़ब आकि लोटे केटली अखाड़ि पानि भरि लेब। मन ततमत करए लगलनि, ओना ऐ उमेरक ई प्रश्न नै भेल, मुदा हर-काजक अपन गति-विधि छै। अपने जिनगीक काज ने दोसराकेँ बाट देखौत। समैसँ पहिने सुचिता काकी चाह बना दहिना हाथे गिलास नेने नीलकंठ काका लग पहुँचली। अखनि‍ धरि नीलकंठ काका मुड़ी निच्चे मुहेँ केने छला। मनमे बेटा बि‍आहक काज घुरि‍याइत रहनि‍। चाहक गिलास जखनि सुचिता काकी निच्चे दबा बढ़ौलकनि तखनि आँखि पड़िते काका नजरि उठौलनि। भकुआएल मुँहक सुरखी देखि नजरि-पर-नजरि गड़ौलनि। मुदा कक्काक मन अपन विचारपर रहनि‍। काकीकेँ बूझि पड़लनि जे भरिसक कोनो दब कएल काज मनकेँ पकड़ने छन्‍हि‍। मुदा जँ चाह पीबैसँ पहिने बाजि बात लाड़ब तँ भऽ सकैए जे चाह पीब छोड़ि अपने बेथासँ बेथित भऽ जाथि, तइसँ नीक जे चुपचाप हाथमे चाहक गिलास पकड़ा, अपनो चाह अँगनासँ आनि एतै पीबो करब आ पुछिओ लेबनि। तैबीच दू-चारि घोंट चाहो घोंटि‍ नेने रहता जइसँ मनोक जुआरि‍‍ कमतनि। ओना उदासो चेहराक केते कारणो अछि। केतौ रौद-बसातक उदासी तँ केतौ कोनो काज नै भेने, केतौ परि‍श्रमक नोकसानक उदासी, केतौ धीया-पुता मुइने उदासी तँ केतौ माए-बाप मुइने। मुदा तँए कि पतिक बेथा पत्नी नै सुनथि। पति-पत्नीक बीच हजारो रूप अछि हजारो रंग अछि तँए कि बजा-भुकी बन्न भऽ जाए। आँगन दिस सुचि‍ता काकी बढ़ली। एक घोंट चाह पीवि‍ते नीलकंठ कक्काक मुँह मुस्‍कीयेलनि। मनमे उचरलनि, कहू जे एहेन काजकेँ की कहबै, काज छेलनि डेढ़ सए जोड़ धोती आ तेकर आरो संगी सभ माने पाँचो टूक कपड़ा संग विदाइ करब। ओना डेढ़ सए बहुत भेल मुदा से नै, अज-गज बला परिवार कक्काक। चारि भाँइक अपन भैयारी, तेकर नैहर-सासुर, नाति-नातिक, पोता-पोतीसँ लऽ कऽ अपन सासुरक सातो संबन्‍धीक, तइ संग बेटाक हाइस्‍कूल-कौलेजक संगीक संग नोकरीक संगी धरि‍। नीलकंठ काका हृदए खोलि काज केलनि। प्रश्न तँ मनमे उठलनि मुदा लगले जवाब भेटलनि जे जग-जापमे खर्च होइते छै। जँ से नै होइ तँ धनक काजे की‍ रहत। पेट तँ सागो आ एक लोटा पानि‍ओसँ मानिए जाइ छै। मन नचि‍ते रहनि आकि‍ सुचिता काकी मुँहमे चाहक गिलास भिरौने आगूमे बैसली। तही बीच नीलकंठ काका अपन हाथक गिलास चौकीपर रखि हाथक पाँचो ओंगरी घुमबैत पुछलखिन-
“कहू तँ ई केहेन भेल?”
नीलकंठ कक्काक प्रश्न सुनि सुचिता काकी अकचकाइते रहली जे की केहेन भेल। बाघ भेल की साँप भेल से केना बुझबै। ओना दुनू परानीक -नीलकंठ काका आ सुचि‍ता काकी- मन बेटा बिआहसँ एते खुशी रहनि‍ जे छोट-छीन केते बातो आ काजो मनसँ हटि गेल रहनि मुदा मनोक तँ अपन संसार छै। प्रसंगोक अपन स्थानो आ महत्तो छइहे। दुनू बेकतीक सझिया काज तँए आरो बेसी मन खुशी रहनि। खुशी हएब उचितो छल किएक तँ केतो एहनो होइ छै जे प्रेमरस पीब, मधुर गीत गाबि‍ संतान पैदा होइ छै आ किछुए दिन पछाति सभ किछु उनटि जाइ छै, ओइ बेटासँ तँ नीक काज भेले रहानि। ओना चारि भाए-बहिनक बीच एकेटा बेटा तीनटा बेटीए छेलनि। जे तीनू बेटा बेटीसँ जेठे छेलनि जेकर बि‍आह-दुरागमन पहिने कऽ नेने छला। तीनू बेटी बि‍आहक दान-दहेज देखि दान-दहेजसँ मने उचटि‍ गेलनि, जइसँ बेटाक प्रति दान-दहेजक विचारे मनमे दबि गेलनि। दोसरो कारण भेलनि, एक-एक बेटीक बि‍आहमे जेते खर्च भेल तइसँ बेसी जँ बेटीबलाकेँ खर्च कराएब ई तँ सोझहा-सोझही अन्याय भेल। मुदा से कहाँ होइ छै, दहेजक दुआरे बेटी बि‍आहकेँ लोक अगर-मगर करैत टपि जाइए मुदा बेटा बेरमे बिनु पढ़लो-लिखलकेँ डाक्टर-इंजीनियर बना देल जाइए। जहिना बड़दहट्टामे फुसि-फासिक तेजी रहै छै तहिना ने बेटो-बेटीक बि‍आहमे...। यज्ञ सन पवित्र स्थलमे जँ फुसि-फासिक तेजी नै रहत तँ ओ यज्ञ शुद्धे केना भेल? खैर जे होइ। जेते तीनू बेटीक बि‍आहमे खर्च भेल ओते आमद एकटामे केना हएत। तइसँ नीक जे मुँहछोहनिए नै करब। हथउठाइ जे हेतै सएह हेतै। पतिक बिपटा बानि -हाथक ओंगरी घुमा बजैत- देखि सुचिता काकीकेँ हँसी लगलनि मुदा हँसबो तँ हँसबे छी। केतौ गुदगुदबैए तँ केतौ भकभकेबो करैए। काज नफगर रहल घट्टो नफे बुझाए छै आ घटगर रहल तँ नफो घट्टे बुझाए छै। पथड़ाएल केराउक भुज्जा जकाँ सुचिता काकीक दाँत तर नीलकंठ कक्काक आक्रोश पड़लनि‍। मुदा आक्रोशो तँ आक्रोशे छी, कथीक आक्रोश? तँए जाबे उघारि-उघारि नै बजता ताबे बूझब केना? मुदा मुँहक हँसी पेटमे गुरकुनियाँ कटिते रहनि। बजली-
“तेहेन झाँपि‍-तोपि बजै छी जे ऊपरे-घाँड़े रहि गेलौं तँए कनी बिक्‍छा कऽ बजियौ। जखनि दुनू गोटेक सझिया जीवन अछि तखनि हम हँसी आ अहाँ कानी ई केहेन हएत?”
खिस्सकरकेँ जहिना एक्कोटा खिस्सा सुनिनिहार भेटला पछाति अपन सुधि-बुधि हरा जाए छै तहिना नीलकंठ काकाकेँ सुचिताक बोल सुनि भेलनि बजला-
“परिवारक महान यज्ञ बेटा-बेटीक बि‍आह छी, तेहेन यज्ञ जँ नीक जकाँ सम्पन भऽ जाए तँ खुशीक बात भेल। तइले देहोक धौजनि आ पाइयोक धौजनि तँ हेबे करत। मुदा तइमे उचित-अनुचितक तँ विचार करए पड़त किने?”
नीलकंठ कक्काक मनकेँ पकड़ैत चुट्टा सुचिता काकी भिड़ौलनि। हुँहकारी भरैत बजली-
“ऐमे के नै करत?”
जहिना एक्के भगवान भिन्न-भिन्न स्वरूप भिन्न-भिन्न फूल-पत्ती पाबि खुशी होइछ तहिना नीलकंठ काकाकेँ सेहो भेलनि। सुचिता काकीक नजरि‍-पर-नजिर गड़़ा बजला-
“उचित-अनुचित बेड़ाएब असान अछि। जिनगीक संगी रहने की हएत! ई तँ विचारक संगी भेने ने काज चलत?”
नीलकंठ कक्काक बात सुचिता काकीकेँ अकठाइन लगलनि। मनमे उठलनि जे कहू सभ दिन एकठाम रहि सभ किछु करै छी तखनि एना किए बजै छथि। भरिसक कोनो एहेन उकड़ू सोग ने तँ मनकेँ पकड़ि नेने छन्‍हि‍। आन दिन केहेन बढ़ि‍याँ हबगब करै छेलौं आ आइ की भऽ गेल छन्‍हि‍। बजली-
“कनी नीक जकाँ अपन उदासीक कारण बजियौ। हम ऊपरे-झापरे रहि गेल छी।
सुचिता काकीक जिज्ञासा देखि नीलकंठ काका कहलखिन-
“उचित-अनुचित काजक दू छोर भेल। एक छोर उचित भेल आ दोसर अनुचित। मुदा तइसँ थोड़े काज चलत। सुत-सुत मिलि जहिना डोरी बनैए तहिना दुनू अछि। तेकरा बि‍हिया कऽ जँ नै सीमा देब तँ काजे भँसि‍या जाएत। बुझबे ने करबै जे केतए की भऽ गेलै। पछाति बाजब जे मनमे जे छेलै से भेबे ने कएल। अहीं कहू जे मनेक विचारकेँ ने काज रूप बना केलिऐ तखनि किए ने भेल?”
नीलकंठ कक्काक विचार सुचितो काकीकेँ दमगर बूझि पड़लनि। माथ कुड़ियबैत बजली-
“तखनि केना हएत?”
सुचिता काकीक पघिलल मन देखि नीलकंठ काका कहलखिन-
“बड़ भारी जाल छै। फुलवाड़ीक फूलमे देखबै जे एके नामक अपराजित फूल उजरो होइए लालो होइए आ कारीओ होइए। सोझहे अपराजित आकि आने फूल जे रंग-रंगक होइए, कहलासँ थोड़े बूझि पेबे जे लाल-कारीमे कोन-नीक कोन-अधला भेल?”
नीलकंठ कक्काक छिड़ियाएल विचार सुनि सुचिता काकी समटैत बजली-
“अच्छा, छोड़ू एते छान-पगहाकेँ। एक-एक काजकेँ उठा बेड़बैत चलू जे की नीक-भेल आ की अधला भेल।
पत्नीक विचार सुनि नीलकंठ काका बजला-
“हँ, बड़बढ़ि‍याँ विचार देलौं। मुदा पहिने ई कहि दिअ जे केते काज अढ़ेला पछाति करै छी आ केते अपने फुड़ने करै छी?”
पतिक बात सुनि सुचिता काकी अकबका गेली। मने-मने विचारे लगली जे ई की भेल? एकरा की काज करब नै कहबै? घर-परिवारक जखनि काज भइए गेल तखनि काज केना ने भेल। भरिसक बुधिए तँ नै घुसुकि गेलनि हेन, नै तँ एहेन बिनु हाथ-पएरक बोल किए भेलनि? हलाँकी एक्केटा बातमे सेहो मानब उचित नै हएत। जँ मन घुसकल-फुसकल हेतनि तँ दोसरो-तेसरो बात एहेन बजता। ओना लोककेँ बेरो-विपति आ काजो-उदममे मन घुसुकि-फुसुकि जाइ छै। आंशिक रूपमे की ई झूठ जे किछु सरकारीओ कर्मचारी वा शिक्षकोकेँ बेटीक बि‍आह सेहो पतित बनौलकनि। परिस्थितिओ रहल जे केते शिक्षक हाइ स्कूल वा कौलेजसँ सेवा-निवृत भऽ गेला मुदा हाथसँ कहियो वेतन नै उठौलनि। मुदा तँए कि‍ परिवारमे खर्च नै छेलनि, एक शिक्षक वा कर्मचारीक खर्च तँ छेलनि‍हेँ। मनकेँ थीर करैत सुचिता काकी विचारलनि जे से नै तँ जे बुझैमे नै आएल से पुछिए किए ने ली, पुछलखिन-
“की कहलिऐ अढ़ेलोत्तर आ अपने फुड़ने?
सुचिता काकीक प्रश्न सुनि नीलकंठ कक्काक मनमे उपकलनि, भरि दिनक हराएल जँ साँझो घड़ि घर पहुँच जाए तँ ओ हराएब नै भेल। दिन तँ होइते छै बौआइले तखनि बौआएब हराएब केना भेल। बजला-
“जखनि कोनो काज अढ़ेला पछाति जे करैए ओ अपन उहिक नै भेल। जँ ओकरा अढ़ाएल नै जाए तखनि ओ करत की? अहीं कहू?
नीलकंठ कक्काक विचार सुनि माथक मोटा पटकैत सुचिता काकी बजली-
“अहाँ अपनाकेँ एतबे किए बुझै छिएे जे हमरा कोनो काज करैले नै कहब। जँ से नै कहब तँ केना बुझबै जे हमर बात फंल्ली मानैए आकि नै?
पाशा पलटैत नीलकंठ कक्काक बजला-
“जड़िसँ छीप धरिक काजक हिसाब-किताब करैमे बड़ समए लगत। से नै तँ एक्केटा काजक हिसाब करू।”
एकटा सुनि सुचिता काकीक मन हलचलेलनि। ई तँ सोलहन्नी एक तरफा भेल औगता कऽ बजली-
“अहूँक बात रहल आ एकटा हमरो अछि।”
“से की?”
“सवारी बरियातीक हिसाबसँ होइ छै तइमे एते गाड़ीक कोन प्रयोजन छेलै, जे लऽ गेलौं?
सुचिता काकीक प्रश्न सुनि नीलकंठ काका बजला-
“अच्छा, अहीं विचार दिअ जे पहिने की विचारब?
पतिक शीतल छाहरि पाबि काकी बजली-
“पहिने गाड़ीए-सवारीक विचार करू। किए पच्चीसटा गाड़ी लऽ गेलिऐ, जखनि कि डेरहे सए बरियाती गेलिऐ।”
गाड़ीक नाओं सुनि समाजमे जीतक अनुभव नीलकंठ काकाकेँ भेलनि। अखनि धरि‍ समाजमे कियो बीसटा गाड़ीसँ आगू नै बढ़ल छला तैठाम पाँच गाड़ी बढ़ैक प्रतिष्ठा केकरा भेटल। आह्लादित होइत कहलखिन-
“अपन मनोरथ छल जे आगू बढ़ि काज करी। किए अहाँकेँ कोनो तेकर दुख अछि? प्रतिष्ठा की फूटा कऽ भेल आकि सम्मि‍लि‍ते भेल।”
एक तँ ओहिना सुचिता काकीक मन बेटा बि‍आहक खुशीसँ उधियाइत रहनि‍ तैपर पतिक मनोरथ सुनि आरो उधिया गेलनि। बजली-
“अनकासँ तँ नीक काज जरूर भेल। देखै छिऐ जे अल्हुआक बोरा जकाँ मनुख गाड़ीमे ठसमठस बरियाती जाइ-अबैए आ गाड़ीएमे मुँह पेट सभ चलए लगै छै। तइसँ नीक भेल जे जे कियो गेला अरामसँ एला-गेला।”
सुचिता काकीक बोल सुनि नीलकंठ कक्काक मुँहसँ हँसी फुटलनि। पतिक हँसी देखि काकीकेँ भेलनि जे भरिसक हमर निशान उचित जगहपर लगलनि‍। अपन बराइ सुनि खुशी हएब मनुखक जन्मजात संस्कार रहल अछि। अपन उचित जगहक निशानसँ पतिक मुँहकेँ लाबा जकाँ हँसाएब सफल पत्नीक प्रमुख लक्षण तँ भेबे कएल। मुदा नीलकंठ कक्काक हँसीक कारण सुचिता काकीक निशान नै बल्‍की‍ समाजमे अरामदेह बेसी गाड़ीकेँ बेटाक बि‍आहक बरियातीमे लऽ जाएब छेलनि। जेकरा बेटाकेँ अधिक दान-दहेज बि‍आहमे भेटै छै, समाजमे ओकरे मान भेल किने? जँ मान बढ़ल तँ जरूर अंको बढ़ल हेबे करत। पेटक गुदगुदी असथिर होइते सुचिता काकी बजली-
“आब, हाँ-हाँ हीं-हीं छोड़ू। भानसोक बेर भेल जाइए। अखनि पुतोहुकेँ चुल्हिक भार थोड़े देबै। जइ बेथे बेथाएल छी से बेथा निकालू। जाबे गुर घाउ जकाँ कोनो बेथाकेँ नीक जकाँ नै निकालि बहा लेब ताबे सड़नि-असाइक डर रहि‍ते छै। तँए आदो-पान्त बाजू?
जहि‍ना कियो संगीतज्ञ उच्च कोटीक मंचपर कलासँ श्रोताकेँ मुग्द कऽ सुता दइए तँ केतौ एकान्त बनमे असकरे कियो अपन गुणसँ निराकार रूप भगवानकेँ सुन भरत जकाँ नन्दी गाम बना राज-काज चलबैए तहि‍ना अपन बेथित वाणकेँ निकालैत नीलकंठ काका बजला-
“बि‍आहक आन खरच आ काजपर मन केतौ नै अँटकल अछि, किएक तँ चाउर-दालि खर्च भेल तँ बदलामे लोको, मालो-जाल आ चिड़ैऔ खेलक। गाड़ी-सवारीमे खर्च भेल तँ ईहो उपराग नै भेटल जे किनको डाक्टर ऐठाम जाए पड़लनि। मुदा डेढ़ सए जोड़ धोती मिला पाँचो टूक विदाइमे जे खर्च भेल ओ टारनो मनसँ नै हटैए।”
जहिना मरूभुमिमे बालु सिबा चमकैत किछु नै नजरि अबैत तहिना सुचिता काकीकेँ बेटा बि‍आहक सफलता मनमे छेलनिहेँ चमकि चड़चड़ेली-
“राँड़ कानए अहिवाती कानए तइ लगल बड़कुम्मरि‍ कानए, सुहरदे मुहेँ किए ने बजै छी जे आने बरक बाप जकाँ कननी बिमारी धेने अछि तँए कनै छी। अपने मने जे केतबो गुर-चाउर चिबबैत कानब तँ की हमहीं संगी छी, बाँटि थोड़े लेब? खैर जे होउ, देह तँ रोगाएल अहींक अछि, तँए बिमारीक जड़ि तँ अपने बुझैत हेबै। बाजू, खोलि कऽ बाजू, कनी भानसमे देरीए हएत तँ की हेतै। मनक घाउ जे मेटाएल रहत तँ खाइओ आ सुतैओमे रुचि औत।”
सुचिता काकीक विचार सुनि नीलकंठ कक्काक मनमे भेलनि जे भरिसक लोक ठीके कहै छै राजाकेँ किदनि‍ चिन्ता आ रानीकेँ किदनि‍क। मुदा मनक बेथा नीक जकाँ वएह ने बूझि पाबि‍ सकैए जेकर हाथ-पएर नम्‍हर हेतै। घटको सबहक अजीब गति छै। बर-कनियाँक घरदेखीमे लगले सर्टिफिकेट दऽ दइ छथि जे सीता-रामक जोड़ी अछि। विधातो जेना जोड़े लगा पठौलनि। मुदा नै सोलहन्नी तँ अठन्नीओ बेथा तँ भगबे करत। सोलहन्नी तँ तखनि भगै छै जखनि सुनिनिहार बेथा सुनि बेवसथित ढंगसँ समाधान करै छथि, मुदा तइसँ कि अपन बेथा हृदैसँ निकाललोसँ तँ अदहा कमिते अछि। किएक ने कमत? लोक नै सुनत तँ नै सुनह मुदा उगलाहा तँ सुनबे करता। पुछलखिन-
“विदाइमे केते खर्च भेल से बूझल अछि?”
ठोरेपर बरी पकबैत सूचिता काकी कहलकनि-
“विदाइ तँ विदाइ भेल, तइमे हमरा बुझैक की प्रयोजन अछि। ई काज तँ पुरुख पात्रक छी। जे घरसँ निकलि‍ कुटुम-परिवार धरिक चीन-पहचीन रखै छाथि, सेहो अधला की भेल। जखनि अधले नै भेल तखनि चिन्ते किए हएत? जखनि चिन्ते नै हएत तखनि मने किए बेथाएत? मन हल्लुक करू। अनेरे तरे-तरे गुमसड़ै छी।”
नीलकंठ कक्काक मन मानि गेलनि जे मुँहछोहनि छोड़ि किछु ने भेटत। मुदा मनक बेथाक कथा जँ बाजिओ नै लेब तँ ओकरा संग अन्याय हएत। बजला-
“जे बात सुनैमे नै आबए ओ दोहरा कऽ पूछि लेब। मुदा जे बुझैमे नै आबए ओहन नै दोहराएब। शुरूहेसँ कहै छी।”
अपन भरियाइत आसन देखि सुचिता काकी हाथ-पएर सोझ-साझ करैत बैसली। सोझ-साझक कारण रहनि‍ जे नजरि-नजरिक मिलानी नब्‍बे डिग्रीमे नै शत-प्रतिशत हुअए। कहलखिन-
“देखू हम बि‍सराह छी, जँ बीचमे कोनो बि‍सरि जाइ तँ ओकर मदी नै भेल। मुदा अहूँ, काज केतौ आ बात केतौसँ नै करब। जहिना-जहिना काज बढ़ैत गेल तहिना-तहिना बातो बढ़बैत चलब।”
सुचिता काकीक विचार नीलकंठ काकाकेँ दमगर बूझि पड़लनि। दमगरे विचार ने दमगर आशा जगबैए। बजला-
“डेढ़ सए गोटेकेँ विदाइ केलियनि‍। ओना किनको ऐ दुआरे नै बेरेलियनि‍ जे एक काजक एके विदाइ उचित बुझलौं। मुदा तइसँ कि किनको संग कम-बेसी नहियेँ केलियनि?”
पतिक बात सुनि सुचिता काकी टपकली-
“किए, कियो किछु उपराग पठौलनि अछि‍?
“उपराग किए कियो पठेता। मुदा मन मानि नै रहल अछि। कहिए दइ छी। डेरहो सए विदाइ डेढ़ लाखक छल। एक-एक विदाइक वस्तुमे एक-एक हजार लगल छल। मुदा आब जखनि‍ पाछू उनटि तकै छी तँ बूझि पड़ैए जे दस-सँ-पनरह गोटे धोतीओ चदरिओक उपयोग करता बाँकी कियो घरनीपा बनौता तँ कियौ गड़ीपोछना!”
पतिक बात सुनिते सुचिता काकी कुदैक बजली-
“अपन महिंसकेँ कियो कुरहरि‍ए नाथत तइले अहाँकेँ चिन्ता किए होइए?”
सुचिता काकीक बात सुनिते नीलकंठ काकाकेँ झड़क उठलनि बजला-
“अहीं सन लोक बि‍आहमे काजसँ विधि भारी बनबैए। एकटा कहू जे अपन बि‍आह मन अछि।”
“मन किए ने रहत?
“केते खर्च बाप केने रहथि से बूझल अछि?
“दहेलहा-भसेलहा खनदान बुझै छिऐ जे काजक हिसाब बाप-माएसँ लेब?
“एना नै छि‍ड़ि‍आउ सबा लाख रूपैआमे दुनू गोटेक बि‍आह भेल रहए। जाउ कनी चसगरसँ भानस करब। अहिना बेजाए नीक होइत एलैए?
m m m

No comments:

Post a Comment