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Friday, October 18, 2013

(37) दोती बि‍आह

दोती बि‍आह
पचास वर्षीए प्रोफेसर उमाकान्त दोहरा कऽ बि‍आह कइए लेलनि। केना नै करितथि? संयमी रहने पचास बर्खक चेहरा पैंतीस-चालीससँ ऊपर नै बूझि पड़ै छन्हि। पत्नीक मुइने घर सुनसान लागए लगलनि। चौघारा कोठरी सभ ढन-ढन करैत। अपना छोड़ि ने दोसर भैयारी आ ने कियो आन परिवारमे रहनि। दुइएटा सन्तानो। जेठ बेटी प्रोफेसर पतिक संग बनारसेमे रहै छथिन। दुरागमन पछाति आइ धरि मात्र तीन बेर माए-बापसँ भेँट‍ करए एली। बेटो तहिना। डाक्टरीक अंतिम साल, बंगलोर मेडिकल कौलेजमे पढ़ै छथिन। सालक दुर्गापूजाटा मे गाम अबै छथि।
किरिण फुटिते तीनू बकरी घरसँ निकालि बाहरक खुट्टीमे बान्हि, कटहरक पात आगूमे दऽ बगलमे बैस अपने फुड़ने असकरे बैसल बहि‍री बाजए लगली-
घोर कलयुग! घोर कलयुग आबि गेल। जेते दिन ई दुनियाँ चलैए, चलैए, नै तँ धरती फाटत। सभ ओइ‍मे चलि जाएत। सुआइत लोक कहै छै जे मनुख तेते पपीयाह भऽ गेल अछि जे खिआइत-खिआइत चुट्टी-पि‍परी जकाँ भऽ गेल। हमरा सभकेँ भगवान पार लगौलनि जे एतेटा मनुख भेलौं। आबक लोक थोड़े एते-एतेटा हएत। तेहेन हएत जे लग्गी लगा-लगा भट्टा तोड़त।
ओना बि‍आहसँ दू दिन पहिनहिसँ स्त्रीगणक बीच गुन-गुनी शुरू भऽ गेल छेलै मुदा कियो खुलि कऽ नै बजै छेली। मुदा आइ सबहक मुँह खुजि गेलनि। टोलक बीच सरकारीक तीनेटा चापाकल अछि। बाँकी पाँचो अपन-अपन अँगनेमे गड़ौने छथि, जैपर आन-आन नै जाइत। तीनूमे सँ एकटाक हेडे खोलि तड़िपीबा सभ बेचि‍ कऽ ताड़ी पीब गेल। दोसराक फील्टरे फुटि गेल छै, जइमे पानिसँ बेसी गादिए अबैए। खाली चौराहा परहक कल बँचल अछि। मुदा ओहो कोन जनमक पाप केने अछि जे भरि दिनमे कखनो आराम नै भेटै छै। चारू दि‍ससँ पनिभरनी बाल्टीन-घैल लऽ आबि-आबि चारू दि‍ससँ घेरि बेरा-बेरी पानि भरैत रहै छै। तँए गप-सप्‍प करैक नीक अवसरो आ जगहो फइल।
चिक्कारी मारैत मझौरावाली सोनरेवाली दि‍स देखि‍‍ कऽ बजली-
सौनक लगनक गीत अबै छन्हि, दीदी?”
मुस्की दैत सोनरेवाली उत्तर देलखिन-
जहिना एक्के लोढ़ीसँ सिलौटपर मिरचाइओ पीसल जाइत अछि आ मिसरीओ तहिना ने डहकनो फागुनोक लगनमे गाैल जाइत अछि आ सौनोमे।
दुनू गोटेक चिकारीमे गप्प सुनि बेलौंचावाली बजली-
अपना भैंसुरकेँ नै देखै छहुन जे काठपर जाइ बिना दुइर भेल जाइ छथुन आ तैपर पुट्ठा खलीफा घर लऽ अनलखुन, से बड़बढ़ियाँ बड़ चिक्कन आ प्रोफेसर भैयाकेँ अखनि की भेलनि हे। मारे दरमहो कमाइ छथि आ उमेरे केते हेतनि। तीस-पैंतीस बर्खसँ बेसी थोड़े भेल हेतनि।
मझौरावालीक पच्‍छ लैत मुँह चमकबैत मोहनावाली बाजलि-
जानिऐ कऽ तँ पुरुख छुद्दर होइए। तइमे उमाकान्ते जौं छुद्दरपना केलनि तँ कोन जुलुम भऽ गेलै।
मोहनावालीक करुआएल गप सुनि बेलौंचावालीक मन जरए लगलनि। तुरुछि कऽ बजली-
सभ पुरुख तँ छुद्दरे होइए मुदा मौगी तँ सभटा गिरथाइने होइए, सएह ने। सत-सतटा मुनसा देखैए मौगी आ छुद्दर होइए पुरुख। हिनके पुछै छियनि जे प्रोफेसर भैयासँ नीक अपन घरबला छन्हि?”
घरबलाक नाओं सुनि मोहनावाली काँख तरक घैल निच्चाँमे रखि आगू बढ़ए लगली। मुदा तैबीच साठि बर्खक झबरीदादी जोरसँ बजली-
मरदक कमाएल खाइ जाइ छह आ गरमी चढ़ै छह तँ कलपर झाड़ैले अबै छह। एक्को दिन कोइ उमा बौआकेँ भानसो कऽ दइ छहुन आकि एक लोटा पानिओ भरि कऽ दए अबै छहुन। मुदा उल्लू जकाँ मुँह दुसल सभकेँ होइ छह। वेचारा नोकरीपर सँ अबै छथि, अपने हाथे वर्तन-बासन धोइ, पानि भरि भानस करै छथि से बड़बढ़ियाँ, मुदा बि‍आह कऽ लेलनि से बड़ अधला।
झबरीदादीक गप ओते मोहनावाली नै सुनथि जेते तरे-तर बेलौंचावाली जरैत रहथि।
छह मास पूर्व प्रोफेसर उमाकान्तक पत्नी स्वर्गवास भऽ गेलनि। जाधरि जीबै छेलखि‍न ताधरि घरक कोनो भार प्रोफेसर साहैबकेँ नै बूझि पड़ै छेलनि। जहिना कोसीक धार अनवरत बोहैत रहैए तहिना उमाकान्तोक परिवार अपना गतिसँ छह मास पछाति धरि चलै छेलनि। ओना दस बरख पूर्व धरि माए-पिताक नजरिमे उमाकान्त बच्चे आ पत्नी कनियेँ छेलखि‍न। घरक भार दुनूमे सँ किनकोपर नै छेलनि। सोलहो आना माइए-बाबू सम्हारै छेलखि‍‍न। पढ़नाइ-पढ़ौनाइ उमाकान्तक आ दुनू साँझ भानस केनाइ पत्नीक काज छेलनि।
पत्नी मुलाक पछाति उमाकान्तकेँ घर-आँगन सून-मशान बूझि पड़ए लगलनि। चौघारा घरक आँगन, नम्‍हर दरबज्जा, तैबीच असकरे उमाकान्त रहै छथि। परिवारकेँ डगैत देखि‍‍ उमाकान्तक मनमे बेचैनी बढ़ए लगलनि। जहिना भुमकमक समए धरतीक संग-संग ऊपरक सभ किछु काँपए लगैए‍ तहिना मनक संग-संग उमाकान्तक बुधि-विवेक डोलए लगलनि। हृदए चहकए, मन मसकए लगलनि। मसकैत-मसकैत एहेन चिरक्का भऽ गेलनि जे उपयोग करै जोकर नै रहल। अनासुरती धैर्यक सीमा बालुक मेड़ि जकाँ ढहए लगलनि। ढहैत-ढहैत सहीट भऽ गेलनि। सहीट होइते बर्खा-पानि जकाँ रस्‍ता बनबए लगलनि, जइसँ नव-नव विचार जनमए लगलनि। नव-नव विचारकेँ जनमिते आँखि उठा आगू तकलनि तँ मेला-जकाँ दुनियाँ बूझि पड़लनि। सभ रंगक देखिनिहार। सभ तरहक वस्तुक दोकानपर एका-एकी एबो करैत आ जेबो करैत। अपन-अपन धुनिमे सभ बेहाल। दोसर दि‍स देखैक केकरो समए नै। अपने ताले सभ बेताल, जइसँ केकरो-केकरो आँखिसँ नोरो खसैत आ कियो-कियो ठहक्को मारैत। अनका दि‍ससँ नजरि हटा उमाकान्त अपना दि‍स मोड़लनि तँ जिनगी लेल संगीक जरूरति‍ पड़लनि। मन पड़लनि पत्नीक मृत्‍यु। मृत्‍युक उपरान्त सोग परगट करैले तँ बहुतो एला मुदा की सबहक नोरमे एक्के रंगक वेदना रहनि? एक घटना रहितो एक रंगक विचार आ वेदना कहाँ छेलनि? भरिसक सभ भाँज पुरबैले आएल छला। मुदा प्रोफेसर हरिनारायणक नोर किछु आरो बजै छेलनि। की हुनकर नोर पत्नीक प्रति छेलनि आकि‍ पढ़ैत बच्चाक प्रति छेलनि आकि हमर विधुर जिनगीक प्रति छेलनि? मनपर भार पड़लनि। भारक तर मन दबेलनि, जइसँ सोचै-विचारैक रस्तो अवरुद्ध हुअ लगलनि। मुदा तरमे दबल मन कहलकनि-
समाजक लोक की कहत?” फेर मनमे उठलनि, की कहत समाजक लोक! जेते लोक तेते विचार। जहिना ताड़ीक गंधसँ केकरो उल्‍टी होइ छै तँ कियो सुगंध बूझि आत्म-तुष्टि करैए। बूढ़-बुढ़ानुस परम्परानुसार कहता जे संयुक्त परिवारमे बेकती-विशेषक वेदना परिवारक बीच हरा, फुलाएल फूल जकाँ हँसैए, जइसँ अभाव कोनो वस्तु नै रहि जाइत अछि। फेर मनमे एलनि, जइ कौलेजमे शिक्षक रूपमे छी, बेटातुल्य विद्यार्थीकेँ जिनगीक बाट देखबै छी, ओ की कहत? मुदा कोनो घटनो तँ अनिवार्य नै होइत आकस्मिको होइ छै। जे सबहक संग घटबे करत? घटिओ सकैए, नहियोँ घटि सकैए। मन ओझड़ेलनि। किछु काल पछाति‍ मनमे एलनि, जे मनुख ऐ धरतीपर जनम लैत अछि ओ मृत्‍युपर्यन्त हँसैत जीबए जाहैए। से कहाँ भऽ रहल छै। पहुलका जकाँ परिवारो नै रहल। असकर जीअबो कठिन अछि। दोसराक जरूरति‍ सदति काल पड़ैए। भलहिं जिनगीक क्रिया निमाहि लेब मुदा मनक बेथा के सुनत। सभठाम ने तँ लोक कानि सकैए आ ने हँसि सकैए। परिवार तँ हँसै-कनैक जगहे छी। जौं से नै भेटए तँ गुड़-घा जकाँ तरे-तर सड़नि‍ करैत रहत। जेते सड़नि‍ करत तेते शरीरसँ गंध निकलबे करत, जइसँ कष्टो हएत आ औरुदा घटत। जखने औरुदा घटत तखने जिनगी सिकुड़त। जेते जिनगी सिकुड़त तेते मृत्‍यु करीब आैत। फेर मन ओझरा गेलनि। मन ओझराइते नजरि घुमौलनि तँ कौलेजक इतिहास विभागक प्रोफेसर हरिनारायणपर पड़लनि। हरिनारायणे बाबूटा एहेन जिज्ञासु रहथि जि‍नका आँखिसँ हृदैक वेदना, पहाड़पर सँ खसैत झड़नाक पानि जकाँ अनघोल करैत रहनि जे बाप रे, अन्याय भऽ गेल।उमाकान्त ठूठ गाछ सदृश भऽ गेला। जइमे फूल-फड़क संग छाहरिओ अलोपित भऽ जेतनि। अपने जानटा लऽ कऽ पत्नी नै गेलखिन। असीम वेदनाक पहाड़ सेहो माथापर पटकि गेलखि‍न। सभ किछु छिड़िया जेतनि। केना समेटि‍ पौता उमा भाय! की एकरे जिनगी कहबै?”
चेतना शून्य उमाकान्त दुनियाँक बाजारमे हरा गेला। चारू दिसक बाट बन्न बूझि पड़ए लगलनि। के‍म्‍हर जाएब? रस्ते नै। की ओ खरहोरिक ओहन गाड़ल कड़ची सदृश भऽ गेला जइसँ कोनो क्रिया नै भेनौं आन ओगरवाह बुझैए। अनासुरती मनमे जगलनि जे दुनियाँमे कियो अप्पन नै। जाधरि आँखि तकै छी ताधरि दुनियोँ अछि, नै तँ ओहो नै अछि। अपनहि करनीसँ कियो दुनियाँकेँ सुन्दर बनबैए आ कियो अधला। आगू जीबैले संगीक जरूरति‍ सभकेँ होइ छै। आनक अपेक्षा हरिनारायणबाबू, लग बूझि पड़ै छथि। अखने हुनका ऐठाम जा अपन मनक बात कहबनि।
उमाकान्तकेँ देखि‍ते दुनू हाथसँ दुनू बाँहि पकड़ि हरिनारायण अरि‍याति कऽ अपन कोठरीमे बैसा पत्नीकेँ पानि नेने आबए कहलखिन। बामा हाथमे लोटा दहिना हाथमे पानिसँ भरल चमकैत स्टीलक गिलास उमाकान्त दि‍स बढ़ौलखिन। पत्नी विहि‍न उमाकान्त नजरि निच्चाँ केने हरिनारायणक पत्नी-शोभाक हाथसँ गिलास लऽ पानि पीबए लगला। मुदा दू घोंट पछाति‍ पानि कंठसँ निच्चाँ धसबे ने करनि। दोसर गिलास भरैले शोभा बामा हाथक लोटा दहिना हाथमे लैत उमाकान्तपर नजरि गाड़ने। ने उमाकान्त मुहसँ गिलास हटबैत आ ने पानि पीऐत। उमाकान्तक बेथा हरिनारायण बूझि गेलखिन। शोभा हाथक लोटा अपना हाथमे लैत कहलखिन-
अहाँ चाह बनौने आउ। भायकेँ हम पानि पि‍आ दइ छियनि।‍चाह बनबैले शोभा कीचेन रूम चलि गेली।
मुँहमे गिलास सटल उमाकान्तक मनमे अाबए लगलनि। जौं कहियो हरिबाबू हमरा ऐठाम जेता तँ किनका चाह बनबैले कहबनि। उमाकान्तकेँ विचारमे डुमल देखि‍‍ हरिनारायण कहलखिन-
भाय, अपनेसँ हम छोट छी मुदा एकरा धृष्टता नै बूझि दिलक धड़कन बुझू। अपने बेसी दुनियाँ देखलिऐ मुदा...।
चैंकि कऽ उमाकान्त पुछलखिन-
मुदा की?”
आइसँ पहिने मनुख जेते असुरक्षित जिनगी बितबै छल ओइ‍मे बहुत कमी आएल अछि। सोलहन्नी सुरक्षित तँ नै मुदा पहुलका अपेक्षा सुरक्षित भेल अछि। ओना खतरा पहिनेसँ अधिक भऽ गेल अछि। मुदा बदलल रूपमे। पहुलका रूपमे सुरक्षित भेल अछि। जइसँ जिनगीक नमती सेहो बढ़ि रहल अछि। ओना पूर्वज शतायुकेँ सही औरुदा बुझै छथिन। मुदा ईहो बुझिनिहार तँ छथि जे चालीसकेँ घपचालीस बुझै छथि। ओहो ओहिना नै बुझै छथि। अखनो चालीस बर्खसँ ऊपर केते गोटे छथि जे पूर्ण स्वस्थ छथि? मुदा किछु बरख पूर्व धरि अस्सी बर्खसँ ऊपर गोटि-पंगरा पहुँचै छला। से आब अदहासँ बेसी पहुँचए लगल छथि‍। तँए, मोटा-मोटी नब्बेकेँ अाधार बना पुछलखिन-
अपनेक आयु केतेक अछि?”
आयु सुनि उमाकान्त विस्‍मि‍त भऽ गेला। हृदए बमकैत रहनि मुदा मुहसँ बोली निकलबे नै करनि। किछु काल बिलमि कहलखिन-
पचास बरख।
पचास बरख सुनि हरिनारायण उछलि कऽ बजला-
अदहासँ किछु अधिक भेल अछि मुदा अदहा तँ बाँकीए अछि। अदहा लेल...।
नम्‍हर साँस छोड़ि, उमाकान्त आँखि उठा कखनो हरिनारायणपर देथि तँ लगले नजरि निच्चाँ कऽ धरती देखए लगथि। मुस्‍कीआइत हरिनारायण कहलखिन-
अपने दोसर बि‍आह कऽ लेल जाउ। जरूरी नै जे सभ औरत कुल्टे होइए। एहनो औरतक कमी नै जि‍नकामे मानवीय संवेदना गंगाक धार जकाँ सदिखन उमड़ैत रहै छन्हि। नारीक पहिल गुण मातृत्व छी, जेकरा प्रबल बनेबैले पुरुखक सहयोग जरूरी अछि। जखने अनुकूल परिस्थिति नारीक प्रति बनत तखने दुनियाँक रंग-रूप बदलल-बदलल बूझि पड़त।
चाह पीब, विदा होइत उमाकान्त कहलखिन-
अहाँक विचारसँ सहमत छी मुदा काजक भार अहाँपर।‍
दुनू गोटे -उमाकान्त आ हरिनारायण- दू गामक। मुदा कोसे भरिक दूरी दुनूक बीच छन्हि। अपने गामक पच्चीस बर्खक यशोदियाक संतप्त जिनगी हरिनारायणक सोझहामे छन्हि। सोलह बर्खक देहरिपर जखनि यशोदिया पहुँचलि, अट्ठारह बर्खक गुणेश्वर, फूलक सुगंधकेँ भौरा जकाँ झपटि लेलक। जिनगीक हरिअर-हरिअर प्रलोभन देबाक संकल्प करैत, लोक-लाजसँ बँचैले, गाम छोड़ि दिल्ली चलि गेल। मुदा दिल्लीक सड़कपर जखनि दिन-राति बि‍तए लगलै तखनि यशोदियाकेँ छोड़ि गुणेश्वर निपत्ता भऽ गेल। असकर यशोदिया बौअाए लगली। हारि-थाकि यशोदिया एकटा कोठीक शरणमे गेलि। आठ बर्खक पशुवत् जिनगी यशोदियाकेँ बदलैले बाध्य केलक। नव बाट ताकए लागलि। अपनाकेँ मृत बूझि एक राति सभ किछु छोड़ि पड़ा कऽ गाम आबि गेलि। गाम आबि हरिनारायणक पएर पकड़ि ताधरि कनैत रहलि जाधरि ओ बाँहि पकड़ि मनुखक जिनगी जीबैक भरोस नै देलखिन।
हरिनारायण परिवारमे यशोदिया रहए लगली। यशोदियाक मनमे तँ चैन आबि गेल मुदा हरिनारायणक बेचैनी बढ़ए लगलनि। समए पाबि, बि‍लटैत दू जिनगीकेँ जोड़ि एक परिवारकेँ लहलहाइत देखलनि। मनमे खुशी एलनि।
अखनि धरि उमाकान्त यशोदियाकेँ प्रोफेसर हरिनारायणक बहि‍न बुझै छला। यशोदियाक असली परिचए नै छेलनि तँए मनमे खुशी रहनि जे सभ्य परिवारक लड़की घरमे औती, जइसँ पहुलके जकाँ फेर परिवार अपन पटरीपर आबि आगू मुहेँ ससरए लगत।
दिन -लग्न- बेरागन छोड़ि हरिनारायण उमाकान्तकेँ पुछलखिन-
अखनि तँ बि‍आहक समए नै अछि तखनि...।
एक-एक दिन पहाड़ लगि रहल अछि। बि‍आहक जे कोनो बंधन अछि से काँच सूतसँ बान्हल जाइत अछि। जइसँ सदिखन टुट-फाट होइत रहैए। तँए दुनूक -पुरुख-नारी- हृदैक योग हेबाक चाही?”
हरिनारायणक प्रश्नसँ उमाकान्त गुम्म भऽ कहलखिन-
समए आ परिस्थितिकेँ देखैत...।
उमाकान्त यशोदियाक बीच सौने मासमे बि‍आह भऽ गेल।

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