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Friday, October 18, 2013

(21) केना जीब?

केना जीब?

सेवा निवृत्तिक सातम सालक सातम मास, सातम मासक सातम दिन, सात बजे साँझमे दू-जनियाँ सोफापर दुनू परानी प्रोफेसर शंकर कुमार ओंघराएल रहथि। दुनू बेकतीक मन खटाएल। दस बजेक करीब दिनेमे सुनने छला जे संगीक संगिनी चूल्हिक गैसक रिसावसँ झड़कि अस्पतालक सीटपर चिकड़ि-चिकड़ि कानि रहल छथिन। सत्तरि बर्खक अवस्थामे संगी अपने दौग-धूप कऽ रहल छथि। मुदा अस्पतालक डाक्टर, नर्स आ कम्पाउण्डरो जी-जानसँ रोगीकेँ बँचबै पाछू लगल छथिन। तेकर कारण अछि जे एक तँ पाइक कमी नै छेलनि‍ आ दोसर पहुँचो नीके। संगिनीक घटनाकेँ तँ सरस्वती लगसँ नै देखने छेली मुदा समाचारक रूपमे सुनने छेली। करेज तेना दहलि गेल छेलनि‍ जे साँसक गतिसँ छातीक धुकधुकी तेज भऽ गेल रहनि। नस-नसमे भयक भूत समा गेल छेलनि। अन्हारक वाण जकाँ चारू कातसँ मृत्‍युक तीर बेधए लगल छेलनि। जहिना वैरागी रागसँ डरैत, जोगी भोगसँ डरैत तहिना सरस्वती मृत्‍युक भयसँ डरि रहल छथि।
पाँच सए एम.एल.बला ह्वि‍स्कीक बोतल प्रोफेसर शंकर कुमारकेँ बेअसर बूझि पड़लनि। मनक चिन्ता रूपी तीर ह्वि‍स्कीक तीरकेँ रस्तेमे रोकने छल। लग अबै ने दन्‍हि‍। कछ-मछ करैत पत्नीकेँ कहलखिन-
चाह पीबू।
सरस्वतीक मन चाह पीऐसँ सुरक्षित चूल्हि नै जराएब बुझनि। अपन अज्ञाक उल्लंघन होइत देखि‍ शंकरक मन महुराए लगलनि। जहिना भोज्य-पदार्थक वर्तनमे गिरगिट खसि महुरबैत, तहिना। डेग भरि पाछू घुसुकि मुस्की दैत दोहरा कऽ कहलखिन-
चलू, हमहीं चाह बनाएब। कीचेनक तँ सभ किछु देखल नै अछि। अहाँ देखा-देखा देब।
जिनगीक अंतिम अवस्थामे पतिपर जीत‍ देखि‍ ढेंग सन देहकेँ उठा सरस्‍वती कीचेन दिस बढ़ली।
चाह बना कीचेने मे पीबए लगलथि। मुदा तैयो गप-सप्‍प करैक मन किनको ने होन्‍हि। मनक सोग नव विषयकेँ मनमे आबै ने दन्‍हि। जहिना घीउ नै अरघनिहारकेँ थारीमे देखि‍ते जीह ओकिऐ लगैत तहिना नव विचार अबि‍ते जीह माने मन पचपचाए लगनि। चाह पीब दुनू गोटे कोठरीमे आबि पुनः सोफापर पड़ि‍ रहला। गुम-सुम्‍म! जहिना साधक साधनामे लीन भऽ समाधिस्‍थ होइ छथि‍ तहिना दुनू गोटे अपन-अपन विचारक दुनियाँमे औनाए लगला।
सरस्वतीक नजरि पाँच बर्खक अवस्थापर पहुँचलनि। की छेलए माए-बापक राज? खेनाइ, खेलनाइ, पढ़नाइक संग पावनिमे उपास केनाइ आ फूल तोड़ि पूजा केनाइ, बस। यएह छेलए जिनगी। मनमे सुख-दुखक जनमो कहाँ भेल छल। सोहनगर वातावरणमे बि‍आह भेल। नैहरसँ सेवा करए नोकरनी आएल। सासुरो सम्पन्ने रहए। कोनो अभाव सासुरोमे नहियेँ रहए। नोकरे पानिओ भरै छल आ भानसो करै छल। अपनो प्रोफेसरे छला। पाइक संग प्रतिष्ठो बनौने छला। विद्यार्थीसँ शिक्षक धरिक बीच सम्मानित छला। अपनासँ बीसे बेटोक पढ़ैपर खर्च केलनि। आब जे महगाइ शिक्षामे आबि गेल अछि तइसँ इमानदार कमेनिहारक धि‍या-पुता लेल शि‍क्षा असंभव भऽ गेल अछि। दरमाहासँ तँ नहियेँ मुदा पिताक देल सम्पति‍सँ तँ एते जरूर केलनि। अमेरिकामे बेटाकेँ पढ़ा लिलसा मेटौलनि। मुदा अखनि की देखै छी? ऐ अवस्थामे दिन-राति तीन मंजिलापर उतरब-चढ़ब पार लगत? ओहि‍ना तँ हाथ-पएर बिनबिनाइत रहैए। देह भारी बूझि पड़ैए। तैपर परिवारक सभ काज? ऐ उमेरमे बूढ़-कनियाँ बनि जीब रहल छी। तरे-तर पसेना चलए लगलनि। अनासुरती मुहसँ निकललनि-
ऐ जीवनसँ मरब नीक।
पत्नीक बात सुनि शंकर कुमारक भक्क टुटलनि। अखनि धरि हिनकर चेतनाहीन भेल मन देखै छेलनि अपन पछि‍ला जिनगी। गामक स्कूल। केते सिनेहसँ पिताजी घरक देवताकेँ गोड़ लगा, कन्हापर चढ़ा सरस्वती माताक जयकहि‍ आँगनसँ निकलि सरस्वतीक मंदिरमे लऽ गेला। की हम ओइ‍सँ  कम अपना बेटाकेँ केलौं? कथमपि नै। डेरामे गाड़ल देवता तँ नै अछि मुदा देबालमे टांगल फोटो आ अष्टद्रव्यक बनौल मुरती तँ अछि‍ए। बाड़ीक वसन्ती गुलाब तँ नै मुदा मह-मह करैत भकराड़ रूपमे बनल प्लास्टिकक फूल तँ चढ़ौनहि छियनि। धुमन-सरड़क धूपक बदला गुगुल आ अगरबत्ती तँ चढ़बिते छियनि। मोटर-साइकिलपर चढ़ा शहरक सभसँ नीक विद्यालयमे पढ़ेबे केलियनि। जेतेक पिताजी हमरा पढ़ौलनि, एक सीमा धरि पहुँचा देलनि, तहिना तँ हमहूँ केलियनि। नोकरी भेलापर ताधरि पत्नी गाममे रहली जाधरि बाबू-माए जीबैत रहला। मरि‍तोकाल धरि माए संगे खाइले कहथि। संगे तँ नै खाइ एकठीम बैस कऽ जरूर खाइ। मुदा बेटाकेँ जहिएसँ कनभेंटमे नाओं लिखेलौं तहिएसँ एके शहरमे रहनौं फूट-फूट रहए लगलौं। समैक संग शिक्षो बदलल। एकाएक नजरि आगू बढ़ि जिनगीक अवस्थापर गेलनि। चारिम अवस्था। जइ अवस्थामे सभ कथूसँ सम्पन्न भऽ, अभावकेँ निर्मूल माने नष्ट कऽ परिवारसँ ऊपर उठि समाजमे मि‍लि‍ जाएब होइ छै। हमर समाज केहेन? जइ समाजमे मनुखक संग-संग जीव-जन्तु, माटि-पानि, घर-दुआर धरि एक-दोसराकेँ नीक-अधला, सुख-दुखमे संग दैत अछि। एकठीम बैस सभ भोज-काजमे खेबो करैए, दसगरदा उत्सवो हँसी-खुशीसँ मनबैए, ढोल-डम्फापर होरी गाबि-गाबि नचबो करैए, जूरशीतलमे इनार-पोखरि उड़ाहबो करैए, शिव-पार्वती बना बाजाक संग गामो घुमैए।
बेटाकेँ अमेरिकामे पढ़ेलौं। ओ ओइ‍ समाज आ संस्कृतिमे तेना मि‍लि‍ गेल जे अपन सभटा बिसरि गेल। आइ जौं हम अमेरिका जाए रहए लगी तँ ओइ‍ठामक जिनगी दुनू बेकतीकेँ केतेक दिन जीबए देत? की दुनियाँमे मृत्‍यु छोड़ि हमरा लेल किछु शेष नै बँचल अछि। निराश मनमे एलनि करनी देखिहऽ मरनी बेर।जिनगीमे केतए चूक भेल? जौं चूक नै भेल तँ ऐ अवस्थामे पहुँच‍ केना गेल छी?
पत्नीक बात ऐ जीवनसँ मरब नीकसुनि औगता कऽ उठि प्रोफेसर शंकर कुमार बजला-
अखनि सुतैबेर अछि जे सुति रहलौं?”
सूतल कहाँ छी। भानस करैसँ मन असकताइत अछि।
तँ की भुखले रहब। शंकर कुमार बाजि तँ गेला मुदा मन पाछू घूमि‍ कऽ तकलकनि। एक तँ ओहिना मरैक बाट धेने छी तहूमे जे दस-बीस बरख जीबो करितौं से तेहेन रोग भेल जाइ छन्हि जे भुखले मरब। रातिमे खाएब नै तँ नीन केना होएत? जौं नीन नै हएत तँ जीब केतेक दिन?
पत्नी-
कता दिन कहलौं जे नोकर रखि लिअ?”
नोकर सुनि शंकर अमती काँटक ओझरीमे पड़ि गेला। देखैमे नान्हि-नान्हिटा मुदा छाँह जकाँ छोड़ैले तैयार नै। मनमे जोर मारलकनि जे अपने जिनगी भरि नोकरी केलौं। बेटो-पुतोहु -दुनू इंजीनियर- अनके नोकरी करैए आ अपने नोकर रक्खू। जहन ड्यूटी करै छेलौं बेसी तलब उठबै छेलौं, तहन नोकरे ने रखलौं। कारणो छल जे पत्नी थेहगर छेली। बेटा-पुतोहुक अाशो छल। सरस्‍वती थोड़े बुझै छेलखि‍न जे बुढ़ाड़ी एहेन हएत। आइ-काल्हि नोकर केते महग भऽ गेल अछि से थोड़े बुझै छथिन। तकलीफ हेतनि तँ बजबे करती। भलहि‍ं हमरा बुते पुरौल हुअए वा नै। पहिले जकाँ पाँच-रूपैआ-दस-रूपैआमे नोकर भेटत? तहूमे बाल-बोधकेँ थोड़े रखि सकै छी। अनेरे लेनी-के-देनी पड़त। घरक सुख जहलमे भेटत। जौं सिआन राखब तँ तीन हजारसँ कम लेत? तहूमे कि कोनो स्कूल-कौलेज आकि मि‍ल-फैक्टरीक नोकरी हेतै। घरमे काज करत तँ खाइले नै देबै से हएत? तहूमे तँ नीक-निकुत बेसी वएह खाएत। तेहेन समए आबि गेल जे कहीं सम्पतिए ने दुनू बेकतीक जानो लऽ लिअए। जानपर नजरि पड़िते आँखि ढबढबा गेलनि। जाने नै तँ जहान की? जहिना वीणाक तार टुटलापर अवाज खनखना कऽ निकलै छै तहिना टुटल जिनगीक स्वरमे शंकर कुमार पत्नीकेँ कहलखिन-
अहाँक मन असकताइत अछि तँ पड़ू। कहुना-कहुना कऽ क्षुधा तृप्त करै जोकर टभका लइ छी।
मने-मन सरस्वती बजली-
केना जीब?”

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