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Friday, August 10, 2012

उमेश मण्‍डल -अमैआ भार


उमेश मण्‍डल
पिताक नाओं- श्री जगदीश प्रसाद मण्डल, गाम- बेरमा, भाया- तमुरिया, जिला- मधुबनी, बिहार। जन्म तिथि : ३१.१२.१९८०
प्रकाशित पोथी- निश्तुकी (मैथिली कविता संग्रह), मिथिलाक संस्कार गीत, विध-बेबहार गीत आ गीतनाद (मिथिलाक सभ जाति-धर्मक लोकमे प्रयुक्त मैथिली लोकगीतक पहलि‍ संकलन)। विकीपीडियामे मैथिलीक स्थानीयकीकरणमे योगदान, मिथिलाक जीव-जन्तु/ वनस्पति आ जि‍नगीक डिजिटल सचित्र ऑनलाइन संस्करण, मिथिलाक सभ जाति-धर्मक लोकमे प्रयुक्त लोकगीतक रेकार्डेड ऑनलाइन ऑडियो और वीडियो डिजिटल संकलन।

अमैआ भार
कलपर सँ कुरुड़-आचमन कऽ पक्षधर बाबा दरवज्‍जाक सीढ़ीपर पहि‍ल पएर दइते रहथि‍ कि‍ चाहक गि‍लास नेने लालकाकीकेँ आंगनसँ नि‍कलि‍ कोनचर लग अबैत देखलखि‍न। काजक संयोग देखि‍ मन फुदकि‍ गेलनि‍। जाधरि‍ लालकाकी ओसारक सीढ़ी लग अबैथ तहि‍सँ पहि‍नहि‍ बाबा ओसारक चौकीपर पसरल मोथीक बि‍छानक ओठ पकड़ि‍ दुइ बेर‍ झाड़ि‍-बिछा, देवालसँ ओंगठि‍ चौकीपर बैस गेलाह। बैसतहि‍ लालकाकी चौअन्‍नि‍याँ मुस्‍की दैत हाथमे चाहक गि‍लास पकड़ा देलकनि‍। भफाइत हार्ड-लीकर (कड़गर) चाह आ लालकाकीक मुस्‍की बाबाक मनकेँ जहि‍ना बच्‍चाक फेकल गेन गुड़कैत तहि‍ना गुड़का देलकनि‍। मुँहमे चाह लइसँ पहि‍नहि‍ टूसि‍ देलखि‍न- मन बड़ छि‍टकल बूझि‍ पड़ैए। कतौ कि‍छु पेलौंहेँ की?”
पतिक‍ बातक उत्तर दइसँ लालकाकी अनसुन करए चाहलनि‍, कारण जाधरि चाह मुँहमे नै लऽ लैत छथि‍ ताधरि‍ घरक कोनो बात कहब उचि‍त नै‍। हो न हो जँ कहीं अधले लगनि‍। हम तँ कोनो हाकि‍मक घरवाली नै छी जे आमद-खर्चक फाइल खाइए-पीबै काल उल्‍टा देबनि‍। आब भगवान दि‍न बदललनि‍ तँए ने बीअनि‍ डोलबैक दुख भागल नै तँ केहन भारी दुखक तरमे रहै छलौं। पत्नी तँ पति‍क ओहन खेलक संगी छियनि‍ जे दि‍न-राति‍ खेलैत रहैए। चाहक चुस्‍की लइतहि‍ लालकाकीक मुँहसँ खसलनि‍- एगारह सए रूपैया समैध पठा देलनि‍हेँ।
रूपैयाक नाअँो सुनि‍तहि‍ बाबा चौंकि‍ गेलाह। मनमे उठलनि‍, कि‍अए रूपैया पठौलनि‍?‍ अखन रूपै‍याक कोन काज अछि‍? तहूमे कहने तँ नै छेलि‍यनि‍। पति‍क टहलैत मनकेँ देखि‍ लालकाकी दोहरा देलखि‍न- रूपैयाे आ चि‍ट्ठि‍यो बौआकेँ भोरे डाक-पीन दऽ गेलनि‍। नवका समैध पठौने छथि‍।
नवका समधि‍क नाओं सुनि‍तहि‍ पक्षधरक मनमे धक्‍का लगलनि‍। मुदा तैयो संयमि‍त होइत पुछलखि‍न- ि‍चट्ठीमे की सभ लि‍खल छलै?
यएह जे, काजक धुमशाही एत्ते बढ़ि‍ गेल अछि‍ जे अमैया भारक लेल पाइऐ पठा रहल छी। गाम आएब मोसकि‍ल अछि‍।
अमैया भारक नाओं सुनि‍तहि‍ बाबाकेँ तेलि‍या साँपक बिख जकाँ सन्न दऽ आँखि‍येपर बिख पहुँच गेलनि‍। बिखसँ कारी होइत पति‍क देह देखि‍ लालकाकी बूझि‍ गेलीह। सोझासँ ससरैक गर अँटबए लगलीह।ना कि‍यो अंगनासँ सोर पाड़ने होन्हि‍‍ तहि‍ना अंगना दि‍स देखि‍ बजलीह- अबै छी कनि‍याँ। कहैत चुपचाप ससरि‍ गेलीह। मुदा देह थरथराइते रहनि‍। पति‍-पत्नी रहि‍तौं दुनूक बीच वैचारि‍क मन-भेद रहि‍ते रहनि‍। लालकाकीक वि‍चार जे सबहक संगे मि‍लि‍‍-जुलि‍ चली जहन कि‍ बाबाक वि‍चार छन्‍हि‍ जे जहि‍ना जंगलमे अनेको ि‍कस्‍मक गाछ कोनो-कोनो कोढ़िला जकाँ तन्नुक अछि‍ तँ कोनो-कोनो लोहा जकाँ सक्कत। जँ दुनूकेँ एक रंग बूझि‍ कि‍छु बनौल जाए तँ कते दि‍न चलत। जे तन्नुक अछि‍ ओ लगले नष्‍ट भऽ जाएत जहन कि‍ जे सक्कत अछि‍ ओ ओहि‍‍ना तना-उताड़ रहत। तहि‍ना तँ मनुक्‍खोक बीच अछि‍।
चाह सठबो नै कएल रहनि‍ कि‍ तहि‍क बीच क्रोध नाकपर आबि‍ गेलनि‍। क्रोधे मन उनटए-पुनटए लगलनि‍ मुदा कि‍छु बाजथि‍ नै‍।  शुरूहेसँ परि‍वारो आ टोलोक लोक शान्‍तीकेँ लालकाकी कहैत रहनि‍ जे अखनो धरि‍ कहि‍ते छन्‍हि‍।
क्रोधसँ बाबा अधे-छि‍धे चाह पीब‍ चौकी तरमे गि‍लास रखि‍ दलानक भितुरका चौकीपर पड़ि‍ सोचए लगलाह। अमैया भार कि‍ आइएक छी आकि‍ साबि‍केसँ अबैत अछि‍। कोनो कि‍ अपने नै पुरने छी जे नइँ बुझल रहत। जूइड़ेशीतल पावनि‍सँ शुरू कऽ आद्रा धरि‍ पुरैत छलौं। चटनी खेबासँ लऽ कऽ कसौनी-अँचार होइत बरि‍साइतसँ पाकल आमक भार पुरने छी। शुरूमे रोहनि‍या सरही आ बमै, गुलाबखास जरदालूसँ शुरू करैत छलौं, कृष्‍णभोग, लड़ूबा, मालदह होइत कलकत्ति‍यापर पहुँचै छलौं। बरखो खसैत छलए आ आमो लगि‍जाइत छल। अन्‍तमे मोहर ठाकुर, राइर, फैजली, सि‍क्‍कूलक भार पुरि‍ समाप्‍त करैत छलौं। ई कि‍ भेल ‍ जे आमक भारक तरे रूपैया पठा देलौं? हम कि‍ रूपैया नै देखने छी आकि‍ कर्जा मंगलि‍यनि‍? ऐसँ नीक जे नै पठबि‍तथि‍। तइले केकरा के डाँड़-बान्‍ह करैए जे करि‍ति‍यनि‍। ई कि‍ बुइध‍-बधि‍‍या केलनि‍। भारपर आएल वस्‍तु समाजमे बेन स्‍वरूप बि‍लहल जाइत अछि‍, से कि‍ बिलहब?‍‍‍ केहन समए चलि आएल केहन नै‍‍, देखै छी जे जेकरा खूँटापर चरि‍-चरि‍ थान महीसि‍क रहैत छल सेहो सभ आब बजरूए दूधक दही पौड़ि‍ चौरचनक हाथ उठबैए। एहेन पावनि‍ केनहि‍ की? तरे-तर मि‍यादि‍ अगि‍या गेलनि‍।
अांगन आबि‍ शान्‍ती माने लालकाकी पुतोहु लग बजलीह- बूढ़ा बि‍गड़ि‍ गेल छथि‍।
अंगनाक सभ सुनलनि‍, तँए सभ दरवज्‍जा दि‍स जाएबे छोड़ि‍ देलक। तइ काल बाबासँ भेँट‍ करए सुशील आएल। दरबज्‍जापर नै देखि‍ सुशील आंगन ि‍दस तकलक। आँखि‍क इशारासँ लालकाकी सुशीलकेँ बजा कहलखि‍न-‍ भाय सहाएब बगदल छथि‍।
अचंभि‍त होइत सुशील पुछलकनि‍- कि‍अए?
समधि‍याैरसँ अमैआ भारक रूपैये समैध पठा देलखि‍नहेँ, तँए....।
मुस्‍कुराइत सुशील आंगनसँ नि‍कलि‍ जोर-जोरसँ दरवज्‍जाक आगूमे बजए लगल- भाय सहाएब, यौ भाय-सहाएब।
ककरो उत्तर नै सुनि‍ घरेसँ पक्षधर बजलाह- के, सुशील।
हँ भैया, मन-तन गड़बड़ अछि‍ की‍?
ओसारपर आबि‍ पक्षधर बजलाह- मन कि‍ गड़बड़ हएत, तेहन-तेहन काज देखै छी जे नीको मन अधलाह भऽ जाइए।
‍“से की?
कि‍छु नै।
चौकीपर बैसैत सुशील बाजल- कि‍ कहब भाय सहाएब, बे-ठेकानक गाम सभ भए गेल अछि‍। फागुनक लगनमे बरि‍आती गेल रही बरकेँ दुअार लगबए, दाइ-माइ सभ चंगेरामे दूभि‍-धान, चरिमुखी दीप जरौने पहुँचलीह। ले बलैया, तखने बरि‍आतीक अंग्रेजी बाजा फि‍ल्‍मी धुन शुरू केलक। कि‍ कहू भाय, बुढ़‍-बूढ़ानुस सभ तँ पूर्वते गीत गबैत रहलीह मुदा जते नवतुरि‍या सभ रहए ओ सभ डान्‍स करए लगल।
सुशील बजि‍ते रहै कि‍ बि‍चहि‍मे ठहाका मारि पक्षधर बजलाह- ई तँ आन गामक बात भेल। दुनि‍याँ बड़ीटा अछि‍। सौंसे दुि‍नयाँमे ने एक रंग लोक अछि‍ आ ने चालि‍-ढालि‍। अपन कल्‍याणक लेल सभकेँ अपन-अपन जि‍नगी बुझए पड़तै।
बाबाक वि‍चार सुनि‍ सुशील अपन वि‍चार मोड़ैत बाजल- भाय चाह नै पीलौंहेँ, मूड भंगठल बूझि‍ पड़ैए।
दरवज्‍जाक अढ़सँ लालकाकी सभ बात सुनैत रहथि‍। पति‍क ठहाका सुनि‍ मन असथि‍र भेलनि‍। आंगन ि‍दस देखि‍ पक्षधर जाेरसँ बजलाह- कने चाह बनौने आउ?
पानि‍ पीब‍ हाथमे चाहक गि‍लास लैत पक्षधर बजलाह- तेहन मनुख सभ बनि‍ रहल अछि‍ जे एको-दि‍न जीवैक मन नै होइत अछि‍।
पक्षधरक बातकेँ मोड़ैत सुशील बाजल- एह भाय, अगुता जाइ छी। दुि‍नयाँ सबहक सझि‍या छि‍ऐ कि‍ ककरो खानगी। कि‍यो अपन जि‍नगीक मालि‍क अछि‍ आकि‍ दोसराक। जाबे ऐ धरतीक सुख-भोग आ अन्न-पानि‍क हि‍स्‍सा बचल अछि‍ ताबे मरबो नीक हएत।
हँ, से तँ ठीके कहलह।
पक्षधरक समर्थन देखि‍ सुशील बाजल- ‍अपने गामक घटना कहै छी, मटकन भाइयक बेटाक कोजगरा रहनि‍। बम्‍बैयेसँ समैध भाति‍ज दियए रूपैया पठा देलकनि‍। सेहो चौबीसम घड़ीमे। कोजगरे दि‍न। बेर झुकैत मटकन भाय आबि कऽ कहलनि‍ जे सुशील तोँ बड़ जोगारी छह। कने सम्‍हारि‍ दाए। भाइक बात सुि‍न कोनो गरे ने सुझाए, किएक तँ अनका ऐठाम छि‍-छि‍ खाजा-लड्डू आ दही पबैत छथि‍न। मनमे आएल जे समाजक लेल पान-मखानक तँ जोगार भइयो सकैए। मुदा जि‍नकर-जि‍नकर भोज खेने छथि‍न ति‍नका-ति‍नका कि‍ खाइले देथि‍न। केना दही पौरल जाएत आ खाजा-लड्डू बनत। एहेन स्‍थि‍ति‍मे अनेरे पड़ि‍ दोखक मोटरी कपारपर लेब। मुदा एकटा बात मनमे उपकल।
की?”
जखन माए-बाबूक भारसँ लऽ कऽ बाल-बच्‍चा धरि‍क उतरि‍‍ये गेल अछि‍ तखन अनेरे जंजालमे पड़ब नाक-कान कटाएब छोड़ि‍ आरो कि‍ भऽ सकैए? तइसँ नीक जे कि‍यो अपने केलहाक फल ने पाओत।
सुशीलक बात सुि‍न पक्षधर बाबा गुम्‍म भऽ वि‍चार करए लगलाह।

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