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Friday, August 10, 2012

शम्भु कुमार सिंह -भाए-बहिनक व्यथा कथा



शम्भु कुमार सिंह
जन्म: १८ अप्रील १९६५ सहरसा जिलाक महिषी प्रखंडक लहुआर गाममे। आरंभिक शिक्षा, गामहिसँ, आइ.ए., बी.ए. (मैथिली सम्मान) एम.ए. मैथिली (स्वर्णपदक प्राप्त) तिलका माँझी भागलपुर विश्वविद्यालय, भागलपुर, बिहार सँ। BET [बिहार पात्रता परीक्षा (NET क समतुल्य) व्याख्याता हेतु उत्तीर्ण, १९९५] “मैथिली नाटकक सामाजिक विवर्त्तन” विषयपर पी-एच.डी. वर्ष २००८, तिलका माँ. भा.विश्वविद्यालय, भागलपुर, बिहार सँ। मैथिलीक कतोक प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिका सभमे कविता, कथा, निबंध आदि समए- समेपर प्रकाशित। वर्तमानमे शैक्षिक सलाहकार (मैथिली) राष्ट्रीय अनुवाद मिशन, केन्द्रीय भारतीय भाषा संस्थान, मैसूर-६ मे कार्यरत।—सम्पाीदक

भाए-बहिनक व्यथा कथा
हुनका दुनूकेँ एकटा थाकल-हारल बटोही मानि सकैत छी। दुनूक चेहरा झमारल। आँखि सूजल। एकदम श्रीविहीन। हुनका दुनूमे की संबंध रहनि वा संबंधक निर्धारण केना भेल हेतै, से कहब कने कठिन मुदा संबोधनसँ बुझाइत छल जे दुनू गोटे भाए-बहिन जकाँ रहथि। बैसतहि मैथिली वरसँ पुछलथि- “कहू भाय की हाल-चाल! एहेन बगए किएक बनौने छी?”  
वर:      बीज रूपमे हम कहिया ऐ धरतीक गर्भमे पड़लौं, केना हमर अंकुरण भेल, से सभ हमरा एकदम स्मरण नै अछि। हँ, हमरा अपन नेनपनक किछु बात सभ स्मरण अवश्य अछि। तइ दिन हमर उमिर यएह कोनो छओ मासक लगधक रहल हएत। तखन हम एकदम छोट रही, ऐ लेल हमरा माल-जालसँ बचएबाक लेल यएह जगरनाथ मिसर (शिव मंदिरक प्रमुख पुजेगरी) चारू दिससँ जाफरीसँ घेर देने छलाह। तइ दिन मंदिरमे शिव आराधनाक लेल जतेको लोक-बेद अबैत छलाह, लोटाक बाँचल जल हमरा जड़िमे उझलि दैत छलाह। शिव-प्रांगणमे रहबाक परताप बुझू वा हमर अपन भाग्य, किछु महिला लोकनितँ हमरहुँ जड़िमे जल-फूल-अच्छत केर चढ़ौआ चढ़बए लागलीह। देखि‍ते-देखि‍ते हम अपन पूर्ण यौवनकेँ कहिया प्राप्त कऽ लेलौं से हमरो पता नै चलि सकल। भीमकाय हमर देह। हरियर-हरियर पातसँ आच्छादित दूर-दूर धरि पसरल हमर डारि। जखन मंदिरमे शिव नचारी गाओल जाइक तँ पूरा वातावरण संगीतमय भऽ जाइक। बसात उन्मत्त भऽ कए हमरा पात सभकेँ एक्कहि संग झंकृत कऽ दिअए आ आेइसँ निकसल मेहीं सुर जेना नचारीक सुरसँ मि‍लि‍-जुलि एकटा मनोहर दृश्य उत्पन्न कऽ दैक। हमरा डारि-पातक छाहरिमे जेठक दुपहरिमे भरि गामक बूढ़-बुजुर्ग ओइ मचानपर बैस शीतलताक अनुभव करै छलाह। नेना सभ कतौ खो-खो तँ कतौ बुढ़िया कबड्डी खेलाइत रहैत छल। हे ओइ कातमे भरि गामक माल-जाल सबहक लेल विश्रामस्थल छलै। सालमे एकबेर बरसाइत (बटसावित्री) दिन हमर नव रूपेँ श्रृंगार कएल जाए। ओइ दिन हमर सौंसे घरे बुझू जे लाल-पीयर जनौसँ लदि जाइ छल। हम गर्वोन्मत्त रही। हमरा बुझाइत छल जे सभदिन एहिना हमर जिनगी कटि जाएत। (एकटा दीर्घ निःश्वास छोड़ैत) ....मुदा हमरा सुन्दरताकेँ ककरो नजरि लागि गेल। हमरा घमंडकेँ घून लागि गेल। 
एकबेर अही गामक लत्तर खाँक छोटका बेटाकेँ सौंसे देह खौजली भऽ गेल रहै। भरि सहरसाक डागदर-बैदसँ देखेलाक पश्चातो ओकरा कोनो लाभ नै भेलै। किओ हुनका कहलकनि जे ‘पाँज भरि अमरलत्तीकेँ जँ तीन-चारि दिन धरि हुनका पएरसँ मोलबा दियौ तँ खौजली जड़िसँ उपटि जाएत।’ लत्तर खाँ कतए-कहाँसँ भरि पाँज अमरलत्ती आनलनि आ बेटासँ पएर तरेँ मोलबौलथि। खौजली उपटलनि कि नै से नै जानि मुदा हम ओइ अमरलत्तीसँ अवश्य पाटि गेलौं। भेलै ई जे ओइ अमरलत्तीक एकटा टुकड़ी लत्तर खाँ हमरा गाछक उपर फेकि देलथि। आ ओ अमरलत्ती, जे ओहुना परजीवी होइत अछि हमरा सन हरियर गाछ पाबि धन्य भऽ गेल। आइ तँ हमरा सौंसे देहपर ओकरहि राज छै। ओइ आयातित सौंदर्यक नीचाँ हमर नैसर्गिक सौंदर्य फड़फड़ा रहल अछि। हमर तँ दम निकलल जा रहल अछि। बूढ़-बुजुर्ग लोकनि अखनो अबै छथि, नेना-भुटका सभ अखनो बुढ़िया कबड्डी आ खो-खो खेलाइत अछि मुदा हमर अस्तित्वविहीन भऽ जएबाक परबाहि किनको नै छन्हि । अहाँ तँ देखितहि छी जे हमर विशालकाय गाछ गामक प्रवेश द्वारपर अछि, तँए भरि गाममे बि‍आह-द्विरागमन, जनौ, मूड़न सन जतेको आयोजन होइत अछि, सभमे लोक एत्तहिसँ तोरणद्वार बना अपन-अपन घर धरि भुकभुकिया बल्ब लगा कए बाटकेँ झकझबैत अछि। एहेन सभ अवसरपर हमरा कतेक कष्ट होइत अछि से हम नै कहि सकैत छी। हमरा डारि-पातपर गत्तर-गत्तर भुकभुकिया बल्ब सभ लगा देल जाइत अछि जे भरि राति छिनार छौंड़ा-छौंड़ी जकाँ कनखी मारैत रहैत अछि..भुक...भुक...भुक...भुक। हमर तँ गत्तर-गत्तर झरकि जाइ ऐ।
 एकदिन भोगल पहलमान गामक लोक सभकेँ हमरहि गाछतर बजाकए प्रार्थना केने छलाह जे- “ऐ बरक गाछपर सँ सभटा अमरलत्तीकेँ उजाड़ि-उपारि देल जाए नै तँ ओ दिन दूर नै जखन ई परजीवी अइ बर गाछकेँ नेस्तनाबूद कऽ देतै” मुदा गामक अधिकांश लोकक कहब रहै जे- “ई कि कोनो लतामक गाछ छिऐ जे सूखि जेतै! बर छिऐ बर....” बर तँ हम सरिपहुँ छी, मुदा जँ एहिना ई अमरलत्ती सभ हमरा डारि-पातक खून चोसैत रहत तखन कतेक दिन धरि हम जीबि सकब से भगवतीए जानथि.....। एतबा कहि बर फेर उदास भऽ गेलाह।
मैथिली: हमरो दशा तँ किछु एहने अछि भाय! हमरहुँ जनम कहिया भेल, कहिया हम लोक सबहक जीभसँ उच्चरित भेलौं से सभ हमरो स्मरण नै अछि। हमरा तँ अहाँ जकाँ अपन नेनपनो स्मरण नै अछि। असलमे नेनपनमे हमरा समस्त मैथिल समाजसँ ततेक ने दुलार-मलार भेटैत रहल जे हमर नेनपन अल्हड़पनहिमे बीत गेल। हमरा तँ जे किछु स्मरण अछि से अपन जुआनिएक। जेना अहाँ अपन पूर्णयौवनावस्थामे भीमकाय देह आ अपन विस्तीर्ण डारि-पातपर गर्व करैत छलौं तहिना हमहूँ अपन जुआनीमे मिथिलाकेँ के कहए अपन पड़ोसक राज आसाम, बंगालसँ लऽ कए नेपाल (विदेश) धरि अपन श्रुतिमाधुर्य गुणक बले पसरल छलौं। साहित्यक कोनो एहेन विधा नै जइसँ हमर श्रृंगार नै भेल हो। 
ज्योतिरीश्वर, विद्यापति, उमापति, चन्दा, मनबोध।
हरिमोहन, यात्री, मधुप, ईशनाथ, राजकमल, प्रबोध।। 
प्रभृति सहस्त्रों कवि-लेखक लोकनि द्वारा हमर साहित्य-संसारक श्रृंगार कएल गेल छल। ई संभवतः १९म शताब्दीक उत्तरार्ध रहल हेतै जखन मिथिलोपर अंग्रेजी शासन आ शिक्षाक प्रभाव पड़ए लागलै। नाओं कथी लेल कहब (भऽ सकैछ तइ दिन ओ हमरा लेल शुभे सोचने हेताह) अंग्रेजी साहित्यसँ प्रतिस्पर्धा करबाक कारणे सभसँ पहिने ओ हमर अपन लिपि तिरहुता, जे हमर अस्तित्वक प्रतीक चिह्न छल तकरा उतारि कए फेकि देलथि आ हमरापर देवनागरी थोपि देल गेल। तहिया के जनैत छलै जे ई देवनागरी हमरा एकदिन साँस लेब कठिन कऽ देत? आइ हमरा सौंसे देहपर ओकरे प्रभाव अछि। ओकरा तरमे हम फरफरा रहल छी। एकर एकटा उदाहरण हम अहाँकेँ दऽ सकैत छी- अहाँ भारतक कोनो कोनमे चलि जाउ आ लोकक समक्ष बंगलाक कोनो पाठ्य सामग्री प्रस्तुत कऽ कए पुछियौनि जे “ई कोन भाषा थिक? तँ ओ कहता जे बंगला” आ जँ से नै तँ बेसी सँ बेसी कहताह- असमियाँ वा उड़िया, मुदा हुनकहि समक्ष कोनो मैथिलीक पाठ्य सामग्री राखि दियौ तँ ओ फट्ट दऽ कहता जे ‘हिन्दी’। आब अहाँ कल्पना कऽ सकै छी जे तखन हमर मनोदशा केहन भऽ जाइत छल हएत। आर तँ आर जखन कखनो हम अपन आन सखी-बहिनपा (बंगला, असमी, उड़िया आदि)क संग कहियो काल बैसै छी तँ ओ लोकनि हमरा तेना ने फजीहति करै छथि से नै कहि सकै छी। हुनकासभ (बंगला, असमी, उड़िया आदि)क कहब छन्हिज जे- “देखू हमर धिया-पुता सभ विश्वक कोनो कोनमे किए नै होथि, कोनो भाषाक जानएबला किए नै होथि मुदा आपसी संवाद ओ लोकनि अपने भाषामे करै छथि आ एकटा अहाँक धिया-पुता सभ छथि.......” साँच पुछू तँ ई सभ उपालम्भ सूनि करेज कटि जाइत अछि। जो रे दैब! जो रे हमर कपार! हमरा (मैथिली) के कहए ओ लोकनि अपन मैथिल संस्कृतिओ केँ तँ तहिना ताकपर रखने जा रहल छथि- धोती, तौनी, पाग, जनौ..., सोहर, समदाउन, बटगमनी, लगनी...., तिलौरी, अदौरी, तिसिऔरी, तिलकोर..., सभटा हेराएल जा रहल अछि...। अपन ऐ सभ दुर्दशाक चर्चा जखन कहियो काल आन-आन भाषा लग करैत छी तँ जनैत छी ओ लोकनि हमरा की कहैत अछि? ओ सभ कहैत अछि- तोँ ईष्यालु छेँ, तँए तोरा आन-आन भाषा सभसँ ईर्ष्या होइत छौक, तोँ आन-आन सभ्यता आ संस्कृतिसँ डाह करैत छैँ, समैक संग जँ नै चलबेँ तँ एहिना पिछड़ल रहि जेबेँ आदि-आदि। आब अहीं कहू भाय! ई सभ तँ व्यर्थेक दोषारोपण छै ने? दुनियाँक कोन एहेन माए हेतै जकरा अपन धिया-पुताक सुख नै सोहाइत हेतै। अहाँ तँ हमर भाय थिकहुँ, अहाँ सँ हम जे किछु कहब से साँच आ हृदैसँ। हमर धिया-पुता सभ जे आइ विश्वक अनेको कोनमे पसरल छथि, ओ सभ जखन सूट-बूट-टाइ पहिरि निकलै छथि आ फर्र-फर्र अंग्रेजी, जापानी, स्पैनिश, जर्मन, फ्रैंच आदि भाषा बौलैत छथि, फिल्मी गाना गबैत छथि, नीक-नीक होटलमे जा कए काँटा-छूरी सँ खाइ छथि तँ ई सभ देखि‍ सरिपहुँ हमर करेज जुड़ा जाइत अछि। भगवतीसँ गोहारि करैत रहैत छियनि जे “हमर धिया-पुता सभ एहिना अखिल विश्वमे कला, संगीत, साहित्य, राजनीति सभ क्षेत्रमे अपन-अपन नाओं आ जस करथु”। यएह परसूका गप्प थिक, फ्रैंकफर्टमे विज्ञानक क्षेत्रमे कएल गेल कोनो पैघ उपलब्धिक लेल हमरहि एकटा ‘सपूत’ केँ पुरस्कृत कएल जाइत रहै, सौंसे दुनियाँक मीडियाबला सभ ओइ समारोहक कवरेज करैत रहै, अपन सपूतक उपलब्धिपर गर्व करबाक लेल हमहूँ कोहुना ओत्तए पहुँच गेल रही, जहिना-जहिना हुनका सम्मानमे किछुओ बाजल जाइ, तहिना-तहिना हमर करेज गर्वसँ पसरल जा रहल छल, मोनमे होइत छल जे  ओत्तहि मंचपर जा कए हम चिकड़ि-चिकड़ि कऽ लोक सभकेँ कहि दिऐक जे- देखू हम ईर्ष्यालू नै छी, हमरा विश्वक कोनो विषय, भाषा, समुदाय, सभ्यता, संस्कृतिसँ कोनो प्रकारक परहेज नै...... मुदा कार्यक्रमक अंतमे जखन हमर ओइ सपूतसँ पूछल गेलनि जे- अहाँक मातृभाषा की थिक? तँ हुनका मुँहसँ बहरेलनि अंग्रेजी!!! सरिपहुँ कहैत छी भाय! ई सुनितहि हमर करेज...., एतबे नै घर एलापर हुनकासँ हुनक पचमा किलासमे पढ़एबला बेटा पुछलकनि- “बाबूजी! बाबा तँ कहैत छथि जे हमरा सबहक मातृभाषा मैथिली थिक, तखन अहाँ अंग्रेजीक नाओं किएक लेलौं? जँ अहाँ सन-सन लोक सभ अपन मातृभाषाकेँ एना अछूत बूझैत रहताह तखन तँ मैथिलीक भविष्य.....।” बाप कहलकनि- चुप रह बुड़ि, ई कोनो आन भाषा थिकै? मैथिली थिकै मैथिली, एकर जड़ि पताल धरि पसरल छै……। आब की कही भाय! हम अपन ऐ सपूतक अटुट विश्वासपर विश्वास करी वा हुनक छोट बालक द्वारा कएल गेल हमर भविष्यक चिंताक प्रति आशा...! एतबा कहैत-कहैत मैथिलीक दुनू आँखिसँ दहो-बहो नोर खसए लागलनि। 
बर, मैथिलीकेँ सांत्वना दैत रहलथि, हुनका मैथिलीसँ आर किछु सुनबाक अपेक्षा रहनि मुदा मैथिलीक मुँहसँ जेना बकारे नै बहराइत रहनि, ओ कपसि-कपसि कए कानि रहल छलीह....।

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