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Friday, August 10, 2012

शि‍व कुमार झा "टि‍ल्‍लू"- लेबर पेन


शि‍व कुमार झा "टि‍ल्‍लू" १९७३-
शिव कुमार झा ‘‘टिल्लू”, पिताक नाम- स्व. काली कान्त झा ‘‘बूच”, माताक नाम स्व. चन्द्रकला देवी, जन्म तिथिः ११-१२-१९७३, शिक्षाः स्नातक (प्रतिष्ठा), जन्म स्थान मातृक मालीपुर मोड़तर, जि. बेगूसराय, मूलग्रामः ग्राम-पत्रालय- करियन, जिला- समस्तीपुर, पिन: ८४८१०१, संप्रतिः प्रबंधक, संग्रहण, जे. एम. . स्टोर्स लि., मेन रोड, बिस्टुपुर, जमशेदपुर- ८३१ ००१, अन्य गतिविधिः वर्ष १९९६सँ वर्ष २००२ धरि विद्यापति परिषद समस्तीपुरक सांस्कृतिक गतिवधि एवं मैथिलीक प्रचार-प्रसार हेतु डॉ. नरेश कुमार विकल आ श्री उदय नारायण चौधरी (राष्ट्रपति पुरस्कार प्राप्त शिक्षक) क नेतृत्वमे संलग्न। प्रकाशित कृति- क्षणप्रभा (कविता-संग्रह) आ अंशु (समालोचना)|

लेबर पेन
सालक पहि‍ल दि‍न। कवि‍जी भाेरेसँ नव वर्ष मनएबाक प्रकि‍यामे लागल छलाह। चौपाड़ि‍पर सँ सि‍या झाक प्रसि‍द्ध पेड़ा एक पसेरी आनल गेल। सुधीर कामति‍ नन्‍दन बाबाक जि‍रातमे फूलकोबी लगौने छलाह। ओइ खेतक टटका फूलकोबी तीन सेर कीन लेलनि‍। गामक कि‍छु इष्‍ट-मि‍त्र सबहक चाह पार्टीक आयोजन करबाक छलनि‍। कवि‍ जीक नव रूपसँ अर्द्धांगि‍नी परेशान भऽ कऽ पुछलनि‍- पहि‍ने तँ नव वर्षक वि‍रोध करैत छलौं, हमरा सबहक लेल नवका साल शक् संवत आ होरी थि‍क आब की भऽ गेल?
‍चन्‍द्रकला, एना नै अकचकाउ, समैक संग हमरो चलऽ पड़त। जखन सभ लोक पहि‍ल जनवरीकेँ स्‍वीकार कऽ लेलक तँ हम पाछाँ केना रहब। समैसँ आगाँ नै चलबाक चाही मुदा बेसी पाछाँ रहब सेहो ठीक नै।
कवि‍ जीक तर्कक आगाँ श्रीमती गुम्‍म। दलानपर लोकक जुटान होमए लागल। पेड़ा, पकौड़ीक संग-संग मकयवाड़ी लीफक चाह। रमाश्रय जी, लक्ष्‍मी चौधरी, बैजू भाय, राधाबाबू, नागो बाबा, भोला साहुजी सन कवि‍ जीक इष्‍ट-मि‍त्रक संग-संग नवतुरि‍या पि‍रही आ कि‍छु समाजक पछाति‍क लोक सभ सेहो टी पार्टीक आनंद लऽ रहल छलाह। गामक डाॅक्‍टर यशोदा पाठक दलानक आगाँसँ झटकल जाइत छलाह। कवि‍जी हाक देलनि‍- यशोदा भाय, कनेक सन जलपान कऽ‍ लि‍अ। डॉक्‍टर साहेब कहलनि‍- भैया, हम घुुरि‍ कऽ अबैत छी। हरि‍जन टोलमे सुकेशर मोचीक पुतोहुकेँ लेबर पेन भऽ रहल छन्‍हि‍, कनेक सन जल्‍दीमे छी।‍
लेबर पेनक नाओं सुनि‍ते राधाबाबू वि‍स्‍मि‍त होइत बजलाह- कवि‍जी, ई लेबर पेन तँ बुझैत छी जे प्रसव पीड़ाकेँ कहल जाइछ मुदा लेबरक अर्थ होइत अछि मजदूर तखन मातृसुखक अनुभूति‍-पीड़ाकेँ लेबर पेन कि‍अए कहल जाइत अछि?
कवि‍जी फँसि‍ गेलाह, गुम्‍म! लक्ष्‍मी चौधरी बीच-बचाव करैत बजलाह‍- घबराउ नै राधा कक्का, कोनो एह प्रश्न बनबे नै कएल जकर उत्तर कवि‍ जी नै दऽ सकैत छथि‍।‍
चाहक चुस्‍की लैत कवि‍जी बजलाह- अर्थयुगक आधारपर समाजक पाँच गोट वर्ग होइत अछि- कुलीन वा सामन्‍त जैमे समाजक अगि‍ला पाँति‍ रहैत छथि‍ जेना राजनेता, पैघ-पैघ व्‍यापारी, अधि‍कारी आदि‍। दोसर वर्ग श्रमपोषी छैक जैमे कर्मचारी, सीमान्‍त खेति‍हर आदि‍ राखल जा सकैछ। तेसर वर्ग भेल श्रमजीवी- जनि‍क योजना मात्र एक दि‍वसीय होइत अछि। आजुक दि‍न कमाएब आ आइ खाएब ओ नै‍ तँ भूत देखैत छथि‍ आ ने भवि‍ष्‍य।‍ चारि‍म वर्ग होइत अछि चाटुकार आ कोढ़ि‍याक। ऐ‍‍ वर्गमे पहि‍ल लोकक चमचाक संग-संग शरीरसँ दुरूस्‍त भि‍खमंगाकेँ सेहो राखल जाए। पाँचम वर्ग होइत अछि मजबूर वर्ग। ऐ‍‍ वर्गमे साधन-विही‍न अस्‍वस्‍थ, अपंग आ शि‍क्षासँ दूर यायावर लोकनि‍ छथि‍। एे संसारमे व्‍यथि‍त जीवन मात्र दू वर्गक होइत छन्‍हि‍। श्रमजीवी आ मजबूर वर्गक। मजबूर वर्ग तँ कोनो रूपेँ अपन जीवनसँ संतुष्‍ट रहैत छथि‍, कि‍एक तँ कोनो वि‍शेष चाह नै छन्‍हि‍ मुदा श्रमजीवीक जीवन अत्‍यन्‍त दु:खमय। जँ कोनो दि‍न बीमार पड़ि जेताह तँ अगि‍ला दि‍न परि‍वारमे उपवास। अपने दुनू परानी एकादशी मानि‍ मात्र जल ग्रहण कऽ कहुनो रैन काटि‍ सकैत छथि‍ मुदा नेनाक लेल.... कोनो साधन नै।‍
अंग्रेज बड़ बुद्धि‍जीवी जाति‍ होइत अछि। भारत वर्ष सन गरीब राष्‍ट्रमे राज केलक। एक समए छल जे ब्रिटि‍श गन्‍ध लागब स्‍वाभावि‍क। श्रमजीवीक व्‍यथा देखि‍ क्रूर अंग्रेजी आत्‍मा ि‍नश्चि‍त पघि‍ल गेल हेतै। तँए संसारक सभसँ पैघ दर्द प्रसव पीड़ाकेँ श्रमजीवीक पीड़ासँ जोड़ि अंग्रेज लेबर पेनक आवि‍ष्‍कार केलक। प्रसव वेदना संभवत: सभसँ बेसी क्‍लि‍ष्‍ट वेदना थि‍क। संभवत: ऐ‍‍ दुआरे कि‍एक तँ हमहूँ पुरुष छी। ठीक ओहि‍ना श्रमजीवीक पीड़ा मार्मिक होइत अछि। जीवन भरि‍ अगि‍ला दि‍नक आशमे रैन बि‍ता लैत छथि‍- श्रमजीवी।‍ ऐ‍ दुनू व्‍यथामे अनुभूति‍ समाने होइत अछि। अन्‍तर अछि तँ समए कालक। मातृत्‍व वेदना मात्र क्षणि‍क मुदा श्रमजीवीक वेदना जीवन पर्यन्‍त।‍
सभ लोक गुम्‍म मुदा कवि‍जी बजैत-बजैत भाव वि‍भोर भऽ गेलाह।
हमहूँ ब्रि‍टि‍श नीति‍क वि‍रोधी छी, हमरा सबहक देशकेँ ओ बर्बाद कऽ देलक मुदा कि‍छु एहेन उपहार सेहो देने गेल जे देस कालक लेल अनि‍वार्य होइ छै। ओइ‍मे सँ एक अछि‍- जीवन यापनक कला। तँए ने हमरा सन स्‍वदेशी लोक सेहो सालक पहि‍ल दि‍नकेँ आइ आत्‍मसात कऽ लेलौं। राधा बाबू अहाँ ऐ जन्‍ममे लेबर पेनक आनंद नै लऽ सकैत छी, कि‍एक तँ अहाँ ने श्रमजीवी छी आ ने नारी। तँए आग्रह जे अंग्रेजे जकाँ लेबर पेन अर्थात श्रमजीवीक व्‍यथापर धि‍यान राखल जाए नै तँ मि‍थि‍लाक गाम-गामसँ रोटीक आशामे श्रमक पूर्ण पड़ाइन अवश्‍यंभावी अछि‍। कदाचि‍त जौं एना भऽ गेल तँ प्रसव वेदनाकेँ अपन गाओं समाजमे कोनो आन नाओं ताकए पड़त। एकटा कवि‍ता तँ अपने हमरा मुखसँ पहि‍नौं सुनने हएब-
श्रमक कोन मानि‍ जतए बुइधक वि‍लास छै,
पेड़ा दलाल गाल श्रमक पेट घास छै।।
नागो बाबा जोरसँ ठहक्का मारैत बाजि‍ उठलाह- कवि‍ जी पेड़ा खुआ कऽ सूदि‍ सहि‍त असूलि‍ लेलनि‍।‍
सभ आगंतुक लोकनि‍ एक स्‍वरसँ कवि‍ जीक तर्ककेँ मानि‍ चाहक दोसर खेपक आनंद उठबए लगलाह।

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