Pages

Sunday, July 1, 2012

पनि‍याहा दूध :: जगदीश प्रसाद मण्‍डल


पनि‍याहा दूध

आंगन बहारि‍, बाढ़नि‍ धोय पछबरि‍या दावा लगा राखि‍, सुनयना दरबज्‍जा दि‍स तकलनि‍ तँ बूझि‍ पड़लनि‍ जे मास्‍टर सहाएब (पति‍) भरि‍सक सुतले छथि‍ उठा देब उचि‍त हएत मुदा मन ठमकि‍ गेलनि‍। आठमे दि‍न गाम आएल रहथि‍ तँ चारि‍ बजे भोरेसँ हरवि‍र्ड़ो केने रहै छलाह‍ जे घरमे कोढ़ि‍याक बाढ़ि‍ आबि‍ गेल अछि‍, जे काजक बेरमे सूतल रहत ओकरा कहि‍यो भाभन्‍स हेतइ? मुदा आठे िदनक दूरीमे एना कि‍अए देखै छी। फेर मन घूमि‍ कहलकनि‍ उमेरोक दोख होइ छै, ओना सठि‍या तँ गेले हेताह। तत्-मत् करैत सुनयना दरबज्‍जा–आंगनक बीच ठकुआ कऽ ठाढ़ भऽ गेली, ने आगू डेग उठनि‍ आ ने पाछू।
ओना जीवानन्‍दक नीन समैयेपर टूटि‍ गेल रहनि‍, एक तँ ओहुना उमेर बढ़ने खूनो पनि‍या लगै छै आ नीनो पतरा जाइ छै। नीन टुटि‍ते जीवानन्‍दक मनमे उठलनि‍ जे उठि‍ये कऽ की करब? काजे कोन अछि‍ जइ पाछू लागब। आँखि‍ बन्न केने सोचैत रहथि‍। जहि‍ना चि‍न्‍तक चि‍न्‍तन अवस्‍थामे नि‍स्‍तेज भऽ जाइत तहि‍ना रहनि‍। ओना आँखि‍यो खुजैक आ बन्न होइक ढेरो कारण अछि‍ मुदा हुनका से नै रहनि‍। मनमे कतेको रंगक वि‍चार टकराइत रहनि‍, तँए अगि‍ला रास्‍ता देखैमे एकदि‍शाह भऽ गेल रहनि‍। आलमारीक कि‍ताब जकाँ रंग-रंगक वि‍षयक एकेठाम सैंतल रहनि‍, असल वि‍चार परि‍वारमे गड़ल रहनि‍। मुदा परि‍वारसँ पहि‍ने जे अपनापर नजरि‍ पड़लनि‍ ततए गड़ि‍ गेलाह। सेवा-नि‍वृत्त भऽ गेलौं, जीवैक उपाय भलहि‍ं जे हुअए मुदा काज तँ हरा गेल। काजे की अछि‍ जइ अनमेनामे समए गुदस करब। जखन काजे हरा गेल तखन जि‍नगी केना चलत। जँ जि‍नगी चलत नै तँ जीवि‍त-मृत्‍युमे अन्‍तरे की भेल? मनमे लधले रहनि‍ आकि‍ दोसर उठि‍ गेलनि जे करबो केकरा ले करब? पैछला (पूर्वज) कि‍यो छथि‍ये नै अगि‍लो उड़ि‍ये गेल। बीचमे अपनाकेँ पाबि‍ मन दहलि‍ गेलनि‍। सेवा-नवृत्ति‍क तँ एक अर्थ ईहो होएत ने जे काज करै जोगर नै रहलौं। फेर मन ओझरा गेलनि‍। अंधेर नगरी चौपट राजा टके सेर भाजी टके सेर खाजाक पइर भऽ गेल। काजो तँ दू रंगक होइत अछि‍, एक शरीरक शक्‍ति‍सँ कएल जाइत अछि‍ दोसर बौद्धि‍क शक्‍ति‍सँ। हम तँ शरीरक शक्‍ति‍सँ नै बौद्धि‍क शक्‍ति‍सँ करैत छलौं तखन कि‍अए नै करैबला रहलौं। आमक आॅठी जहि‍ना कोइलीसँ धीरे-धीरे सक्कत बनि‍ सृजन शक्‍ति‍ प्राप्‍त करैत, से कहाँ भेल? जँ बौद्धि‍क शक्‍ति‍केँ शरीरक शक्‍ति‍क सीमांकन कएल जाएत तँ केहेन हएत? खैर जे होउ, ठनका ठनकै छै तँ कि‍यो अपना माथपर हाथ दइए। मुदा सेहो तँ नै भऽ रहल अछि‍। जे ठनका शरीरक के कहए जे घरो-दुआर आ गाछो-वि‍रीछकेँ तोड़ि‍-फाड़ि‍ दइए ओही ठनकाकेँ हाथ कते काल बचा सकैए।‍
फेर मन ठमकलनि‍। मुइल धार जकाँ परि‍वारो भऽ गेल अछि‍, कि‍ हमरा बचौने बचत। बचबो केना करत? ने पछि‍ला घूमि‍ औताह आ ने अगि‍ला आबए चाहत। लऽ दऽ कऽ दू प्राणी भेलौं, तहूमे तेहेन पाकल आम जकाँ भऽ गेल छी जे कखन तूबि खसब तेकर कोन ठेकान अछि‍। खैर जे होउ, जाबे आँखि‍ तकै छी ताबे तँ जीबए पड़त आ जाबे जीब ताबे जीबैक उपाए करै पड़त। अपने जीने जि‍नगी आ अपने मुइने मृत्‍यु।
गुन-धुनमे पड़ल जीवानन्‍दक मन समाज दि‍स बढ़लनि‍। समाजे ले की केलि‍ऐ जे हमरा ले करत। जहि‍ना देवस्‍थान दस गोटेक सहयोगसँ ठाढ़ो होइत आ चलबो करैत तहि‍ना तँ समाजो अछि‍। मुदा से तँ कि‍छु ने केलि‍ऐ। थकथकाएल मन कहलकनि‍-
कि‍ ओछाइने धेने रहब आकि‍ उठबो करब?” मुदा लगले दोसर मन कहलकनि‍-
उठि‍ये कऽ की करब?”

मन आगू बढ़ि‍ शि‍क्षक समाज दि‍स बढ़लनि‍। सभ सेवा-नि‍वृत्ति‍ होइ छथि‍। मुदा कि‍ हमरे जकाँ सभकेँ हेतनि‍। भलहि‍ं सभकेँ होन्‍हि‍ वा नै कि‍छु गोटेकेँ तँ हेबे करतनि‍। जखन सबहक जि‍नगी एक वृत्तमे बीतल तखन कि‍अए सभकेँ सभ रंग हेतनि‍। परि‍वारो आ समाजो तँ सबहक सभ रंग छन्‍हि‍। से तँ छन्‍हि‍ये। दीनानाथ बाबूकेँ देखै छि‍यनि‍ जे सेवा-नि‍वृत्ति‍क उपरान्‍तो वि‍द्यालय छोड़ि‍ नै रहलनि‍हेँ। जखन कि‍ सुखदेव बाबू सेवा-नि‍वृत्ति‍ होइसँ पूर्वहि‍ जे तीन बर्ख ओछाइन धेलनि‍ से अखनो धेनहि‍ छथि‍। परि‍वारमे जँ केकरो कि‍छु अढ़बै छथि‍न तँ मुँह दूसि‍ कहै छन्‍हि‍ जे भरि‍ दि‍न कौआ जकाँ काँइ-काँइ करैत रहै छथि‍। मनुक्‍खकेँ जँ कौआ मानि‍ लेल जाए तँ बोलकेँ की कहबै? जीवानन्‍दक मन आरो घुरि‍या गेलनि‍। फेर मनमे उठलनि‍ जे अनेरे औनाइ छी। जतबे रहए ततबे टाँग पसारी नै तँ पओल जाएब। सुतले-सूतल पत्नीकेँ सोर पाड़लखि‍न-
कनी एमहर आउ?”

आंगन-दरबज्‍जाक बीच जे सुनयना ठाढ़ छलीह से आगू डेग बढौलनि‍। केबाड़ लग ठाढ़ भऽ हि‍या-हि‍या देखए लगलीह। पहि‍लुका (सेवा-नि‍वृत्ति‍सँ पूर्वक) अपेक्षा बदलल-बदलल रूप बूझि‍ पड़लनि‍। एना केना भेलनि‍, अखन धरि‍ तँ कि‍छु कहबो ने केलनि‍हेँ। तखन कि‍अए पानि‍ उतरल बूझि‍ पड़ै छन्‍हि‍। केबाड़क एकटा पट्टा खोलि‍ देने रहथि‍न आ दोसर ओहि‍ना लगल रहै। तही बीच जीवानन्‍दक मनमे उठलनि‍ जे जाबे नोकरी करै छलौं ताबे बाहरसँ कमा कऽ आनि‍ पत्नीक हाथमे दैत छलि‍यनि‍, आ अपने अपनाकेँ गारजन बुझैत छलौं। से तँ आब नै हएत। जँ से नै हएत तँ परि‍वार आगू मुँहे केना ससरत? पाहुन जकाँ आठ दि‍नपर अबै छलौं आ कमासुत बनि‍ जाइ छलौं।

पति‍क बदलल रूप देखि‍ सुनयनाक मनमे उठलनि‍ जे अखन धरि‍ कि‍छु करबो ने केलनि‍हेँ आ तरे-तर फटि‍ रहल छथि‍। नवकवि‍रयाक चुटकीक अवाज जकाँ सुनयनाक आगमन बुझि‍तो जीवानन्‍दकेँ उठैक हूबा देहमे नै रहलनि‍। मनोक बोझ तँ माथकेँ ओहि‍ना भरि‍या दैत जहि‍ना कोनो वस्‍तुक बोझ भरि‍अबैत। मनकेँ जि‍नगीक बाेझ ऐ रूपे दबने जेना सवारी कसल घोड़ा वा खलीफा होइत। जाबे धरि‍ बाहरसँ कमा घर अनैत छलौं, जइ बले परि‍वार ससरैत छल ओ तँ टूटि‍ गेल। ओहीपर ने अपनो छहर-महर आ घरो-परि‍वारक छल। मुदा से नै भेने तँ ओहि‍ना भऽ जाइ छै जहि‍ना माटि‍क बनल रास्‍ताकेँ पानि‍क धार काटि‍ अवरूद्ध कऽ दैत अछि‍। की कमाइयेपर गारजनी छल? पत्नि‍येकेँ की सुख हमरासँ भेलनि‍? घर-गि‍रहस्‍ती सम्‍हारैमे दि‍न-राति‍ एकबट्ट केने रहै छथि‍। एक तँ मि‍थि‍लांचलक कि‍सान परि‍वारक अजीव गढ़नि‍ अछि‍, जइठाम एलापर देवि‍यो-देवता भोथि‍या गेलाह। सौंसे जनकपुरमे जनकेक दरवार जकाँ बूझि‍ पड़लनि‍। नान्‍हि‍टा बात थोड़े छी। गाम-गाम व्‍यास भागवत बचै छथि‍, गाम-गाम कीर्तन-भजन, भोज-भनडारा होइत रहैत अछि‍, तइठाम समाज वि‍परीत दि‍शामे बहि‍ गेल, मुदा देखलनि‍ कोइ ने। दरबाजाक सौभाग्‍य छल नीक-नीक बात-वि‍चार करब। तइठाम दरबज्‍जा टूटि‍ आंगन घरक कोठरी बनि गेल अछि‍, जइठाम कम-सँ-कम लोकक पैठ रहैए, जइठाम आनक सुख-दुख सुनैक आ सुख-दुखक दबाइ बुझैक अवसर नै भेटैत तइठाम पति‍-पत्नीक संबंधक आधार कि‍ बनि‍ सकैए। देखा-देखीक दुनि‍याँमे चि‍न्‍ता–चि‍न्‍तन कि‍अए रहत। जँ से नै रहत तँ मनक सुखक दि‍शाक धारा कि‍अए ने बदलत। जीवि‍त-मृत्‍युक ि‍नर्णए के करत? केना हएत? कोनो मुसरा गाछ होइ आकि‍ लति‍आएल लत्तीक होइ, ओकर बाढ़ि‍ ताधरि‍ समीचीन होइत जाधरि‍ ओकरा अनुकूल वातावरण भेटैत रहैत। ओना लाखो कीड़ी-मकौड़ी कोमल कि‍सलयकेँ नष्‍ट करैबला अछि‍ मुदा प्रकृतोक तँ गजब गढ़नि‍ अछि‍, एक-दोसराक नष्‍ट करैबला सेहो मौजूद अछि‍। बि‍नु मुँहक गाछ वा लत्तीक दशा तँ ओहने होइ छै जेहेन साँपक मुँह थकुचेलाक पछाति‍ होइ छै।

जीवानन्‍दकेँ एहसास भेलनि‍ जे हमरापर नै पत्नीपर घर-ठाढ़ अछि‍। जँए घर ठाढ़ अछि‍ तँए समाजक परि‍वार कहबैक लाली अछि‍। मुदा समाज तँ ओहि‍ना नै केकरो महत दैत? सेवाक अनुकूल केकरो महत दैत अछि‍। से हमरा से की भेलै? जखन कि‍छु ने भेलै तखन कते महत हेबाक चाही? मुदा जकरा घर-परि‍वार गाम बुझै छी, तेकरा छोड़ि‍ये केना देब। मुदा ई प्रश्न तँ गामक छि‍ऐ, अपन नै। परि‍वारमे जे छहर-महर भेल ओइमे हमरा कमाइसँ की भेल? यएह ने भेल जे बेटीक बि‍आह केलौं, बेटाकेँ पढ़ेलौं-लि‍खेलौं। अंति‍म अवस्‍थामे अपन घर बनेलौं। मुदा बेटीक बि‍आह, पढ़ाइ-लि‍खाइ एते भारी कि‍अए अछि‍ जे जि‍नगी भरि‍क कमाइसँ लोककेँ पारो ने लगै छै। जँ एतबेमे सभ ओझरा जाए तँ समाजक गति‍ केहेन हएत? जँ समाज दुरगति‍क चालि‍ पकड़ि‍ चलत तँ मनुष्‍यक पैदाइस केहेन हएत। जइठामक जेहेन मनुष्‍य तइठाम तेहने दुनि‍याँ।
करोट फेरते जीवानन्‍दक मनमे उठलनि‍ जे हारि‍ मानी झगड़ा पड़ि‍आए। पत्नीसँ क्षमा माँगि‍ लेब। जँ से नै माँगब तँ हुनकर वि‍चार छि‍यनि‍ जे घरमे रहए दथि‍ वा नै। समाजक संग तँ वएह रहलीह। पत्नीक प्रति‍ जे प्रेम हेबाक चाही से कहाँ कहि‍यो भेल। क्षण-पलक संबंध रहल जीवन-लीलाक संबंध कहाँ रहल। हुनकर दुनि‍याँ हमरासँ भि‍न्न रहलनि‍। मुदा आइ तँ ओही दुनि‍याँक जरूरति‍ हमरो भऽ गेल अछि‍। खंड वि‍कसि‍त देशमे जहि‍ना जनता-सरकारक बीच संबंध रहैत, तहि‍ना ने भऽ गेल अछि‍। जेना पति‍ रूपमे ओ सेवा केलनि‍ तेना कहाँ केलि‍यनि‍। जँ से करि‍ति‍यनि‍ तँ ओ ओहि‍ना ओतै अँटकल रहि‍तथि‍, जतए नाओं-गाँवो नै सीखि‍ पेलीह। जतबो समए गाममे बि‍तेलौं, हुनकर कमाइ खेलि‍यनि‍ ततबो तँ हुनका नै कऽ सकलि‍यनि‍।
ततबे नै, दरबज्‍जापर जे माल अछि‍, हुनका (पत्नी) देखि‍ भूख-पि‍यास कहए लगै छन्‍हि‍ मुदा हमरा देखि‍ घि‍रनी जकाँ नाचि‍ भगबए चाहैए। अठबारेयो जँ अबैत रहलौं तैयो तँ अपन बूझि‍ खाइ-पीबै ले कि‍छु ने केलि‍ऐ। कोनो कि‍ मनुख छी जे घड़ी-मोबाइल देखि‍ मि‍नट-सेकेण्‍ड बूझत, ओकरा लेल तँ अठबारैओ सटले-दि‍न भेल। तहि‍ना तँ गाछि‍यो-बि‍रछीक अछि‍। जूरशीतल दि‍नसँ ओकरा जलढार हेबाक चाही, से अनका तँ कहलि‍ऐ, मुदा...?
.....कि‍अए ओ अपन बूझत?

जहि‍ना सासुरमे जमाए सासु-ससुरक आगू लाड़-झाड़ करैत जे ई नै अछि‍ ओ नै अछि‍। तहि‍ना जीवानन्‍द ओछाइनसँ उठि‍, बैसैत पत्नी दि‍स देखि‍ बजलाह-
एते दि‍नक जि‍नगीमे कहयो नि‍ठूर दूध नै खेलौं? आब अहाँक दरबारमे छी, जेना राखी।
पति‍क बात सुनि‍ सुनयना वि‍ह्वल भऽ गेलीह। अपन कर्तव्‍यक बोध भेलनि‍। पति‍क सेवा पत्नीक पहि‍ल दायि‍त्‍व। लटारम्‍ह करैत बजलीह-
एना संस्‍कृतमे नै कहू, भखि‍औटीमे कहू जे कि‍ कहै छी?”
पत्नीक बात सुनि‍ जीवानन्‍दक मन हरा गेलनि‍। जइठाम सुग्‍गा-मेना संस्‍कृत पाठ करैत छल तइठाम मनुष्‍यक दूरी एते कि‍अए भेल? प्रश्नमे ओझराइते बुकौर लगि‍ गेलनि‍। बोली नै फुटलनि‍।

आजुक शि‍क्षक जकाँ जीवानन्‍दक जि‍नगी नै रहलनि‍। शि‍क्षक समाजक प्रति‍ समर्पित छलाह। ओइ समाजक बीच पढ़ाइ-लि‍खाइ प्रति‍ष्‍ठाक मूल बि‍न्‍दु छल। ओ सभ मानैत छथि‍ जे जइ वि‍षयक जरूरति‍ वि‍द्यार्थीकेँ टयूशन पढ़बाक होइ छै ओइ वि‍षयक पढ़ाइमे कमी छै। वि‍द्यार्थीक लेल कि‍छु सहज वि‍षय होइत अछि‍ कि‍छु कठि‍न। मुदा जइ वि‍षयक जे शि‍क्षक होइ छथि‍ हुनका लेल तँ ई समस्‍या नै भेल। जँ हुनकामे शि‍क्षण-कलाक पूर्णता हेतनि‍ तँ वि‍द्यार्थीकेँ कि‍अए समस्‍या ग्रस्‍त रहए देथि‍न। की वजह छैक जे अपना ऐठाम अदौसँ लऽ कऽ अखन धरि‍ शि‍क्षण-संस्‍थानमे छड़ीक चलनि‍ नै रहल मुदा तँए कि‍ कि‍यो पढ़ि‍-लि‍खि‍ विद्वान नै भेलाह। भेलाह।

जइ हाइ स्‍कूलमे जीवानन्‍द शि‍क्षण कार्य करैत छलाह ओइ वि‍द्यालयकेँ अपन छात्रावास सेहो छैक। जइमे पचाससँ ऊपर छात्रो आ आधासँ बेसी शि‍क्षको रहैत छथि‍। मेसमे भोजन बनै छैक आ जएह वि‍द्यार्थीक लेल सहए शि‍क्षको लेल होइत छैक। ओना शि‍क्षक सभ अलगसँ दूध कीनि‍ राति‍मे सुतै बेर पीबै छथि‍। जीवानन्‍दो पीबै छथि‍।

जहि‍ना बाटमे हराएल बटोही दोसरकेँ पुछैत, मुदा उत्तर देनि‍हारो बटोही तँ रंग-बि‍रंगक होइत अछि‍। कि‍यो एहनो होइत जे अपने हरेबाक चर्च करैत तँ कि‍यो हराएब छि‍पबैत आरो दोसरकेँ हराएल बाट देखा दैत आ कि‍यो एहनो होइत जे कहैत जे संगे चलू। ऐ आशाक संग चलैक बात कहैत जे जँ कि‍छु नै कहबै तँ गोंग कहत, मुदा बि‍नु बूझलमे कि‍ जबाबो देल जा सकैए। ओ संग केने ताधरि‍ चलैत रहैए जाधरि‍ आँखि‍गर नै भेट जाइत अछि‍। अर्द्धांगि‍नीक रूपमे सुनयना पुछलखि‍न-
कि‍ सुच्‍चा दूध कहलि‍ऐ?”
जीवानन्‍द- पैंतीस सालक नोकरीमे कहि‍यो सुच्‍चा दूध नै पीब सकलौं। पीलौं जरूर मुदा एकरा आधासँ बेसी खाएब थोड़े कहल जेतैक।
जहि‍ना मृत्तासनपर चढ़ल राहीकेँ सर-समाज आ कुटुम-परि‍वारक लोक आबि‍-आबि‍ जि‍ज्ञासा करैत जे भैया, कि‍ काका, आकि‍ बाबा की खेबा-पीबाक मन होइए तहि‍ना सुनयना पुछलखि‍न-
एते दि‍न जतए अहाँ छेलौं छेलौं, हम छेलौं छलौं। मुदा आब तँ ओतए अहुँ रहब जतए हम छी।
पत्नीक वि‍चारक गांमीर्यसँ जीवानन्‍द आँखि‍ पड़ल अजगर साँपक सोझसँ पड़ा नै पाबि‍, बजलाह-
कहलौं तँ बेस बात मुदा मनुष्‍य तँ मनुष्‍यक बीच कि‍छु बंधन ि‍नर्धारि‍त कऽ रहैत अछि‍। डोरी-पगहाक जरूरति‍ तँ पशुक लेल होइत। मुदा बान्‍ह तँ एकमुड़ि‍या नै भऽ सकैए। ओकरा लेल तँ जाधरि‍ दू-मुड़ि‍या नै लटपटौल जाएत, ताधरि‍ गीरह केना पड़तै। जाधरि‍ कुशि‍यारक गाछ जकाँ गीरह नै बनत ताधरि‍ रस-जल केना समटाएल रहत।

पत्नीक प्रश्न सुनि‍ जीवानन्‍द जि‍नगीक ओझरी देखए लगलाह जे ई बन्‍धन छूटल कहि‍या। तड़सैत मन पत्नीक करेजमे पहुँचलनि‍। जहि‍ना नि‍शाएल लोक अपने अड़-दड़ बजैत तहि‍ना जीवानन्‍द बाजए लगलाह-
कामि‍नी, सेवि‍काक रूप छोड़ि‍ संगी कहि‍या बुझलयनि‍। ई दोख केकर। मुदा दोख तँ दुनू दि‍स देखए पड़त। पत्नी कोन रूप देखलनि‍। सभ दि‍न ओ पति‍ बूझि‍ सेवा करैत एली। कहि‍यो कि‍छु नै मंगलनि‍। अपन परि‍वारक स्‍तर बूझि‍ अपनाकेँ सम्‍हारि‍ रखलीह।
बड़बड़ाइत पति‍केँ देखि‍ सुनयना बजलीह-
हारि‍ मानी झगड़ा फड़ि‍आए। एके बेर बाजि‍ जाउ जे जे हूसल से हराएल। जे जीबए से खेलए फागु।
मरैत रोगी जकाँ जीवानन्‍द बजलाह-
सुच्‍चा दूध आबो नै पीब सकै छी?”
पीब सकै छी। जखन गाए पोसैक लूरि‍ अछि‍ तखन कि‍अए ने पीब सकै छी। मुदा जइठाम दि‍न-राति‍ लुटनि‍हार लूटि‍ रहल अछि‍ तइठाम थनक दूधक कंठ लग पहुँचत कि‍ नै, तेकर कोन बि‍सवास अछि‍।

पत्नीक प्रश्न सुनि‍ जीवानन्‍द जी-जी कऽ उठलाह। बि‍सरल बात मन पड़लापर जहि‍ना ओकर रूपो-रेखा सोझमे अाबए लगैत तहि‍ना भेलनि‍। बजलाह-
शुद्ध-अशुद्ध दूध ने एक परि‍वारक समस्‍या छी आ ने एक गामक। दूधमे पानि‍ देब चलनि‍ भऽ गेल अछि‍। ओना जे अपने गाए-महींस पोसि‍ दूध खाइ छथि‍ ति‍नकर संख्‍या कम छन्‍हि‍‍। जे बेचि‍नि‍हार छथि‍ ओ दूध बेचि‍ चाउर-दालि‍, तरकारी इत्‍यादि‍ कीनै छथि‍, खाली दूधेटामे पानि‍ नै देखै छथि‍न। आनो-आनो तहि‍ना, तखन कएल कि‍ जाए। कुल-मि‍ला कऽ देखलापर यएह ने देखि‍ पड़ैत जे ताड़ी पीयाक गांजा पीयाककेँ गारि‍ पढ़ि‍ कहैत जे फोकटि‍या अछि‍। एहि‍ना एक-दोसरमे सटल संबंध अछि‍। सभकेँ सभ गारि‍ पढ़ैत आ सबहक सभ सुनैत अछि‍। तहूसँ टपि‍ अपने मुँहे गरि‍या अपने सेहो सुनैत अछि‍।

वि‍ह्वल भऽ सुनयना पुछलखि‍न-
तखन उपाय?”
उपाय एतबे जे जते परि‍वारमे खर्च हएत कम-सँ-कम तते उपारजन कऽ लेब तखन परि‍वारक पाड़़ लगि‍ जाएत। गाममे जते खर्च अछि ओते गौआँ मि‍लि‍ उपारजन कऽ लेताह तँ गामक पाड़ लगि‍ जाएत। समाजेक कल्‍याण ने देशक कल्‍याण छी।‍
~

No comments:

Post a Comment