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Thursday, June 7, 2012

लफक साग :: जगदीश प्रसाद मण्‍डल


गाममे खेतीक चर्च उठि‍ते लाल काकीक लफक सागक चर्च उठि‍‍ये जाइत अछि‍। ओना चरचोक क्रम अछि‍, मुदा लाल काकीक अलग पहि‍चान रहने उपजासँ उठैत चर्चक संग व्‍यक्‍ति‍त्‍वक चर्च उठि‍ते रामायण-महाभारतक प्रमुख पद्यक चर्च जकाँ हुनको होइते छन्‍हि‍‍। चरचोक भि‍न्न-भि‍न्न क्रममे एना होइत जे कतौ-कतौ खाली गहुमेक चर्च चलैत तँ कतौ अगबे धानक। कतौ खइहनक संग दलहनोक चर्च चलैत तँ कतौ खइहन, दलि‍हन, तेलहनोक उठि‍ जाइत। कतौ अन्नक संग तीमनो-तरकारीक उठैत तँ कतौ तीमन-तरकारीक संग फलो-फलहरि‍क। कतौ एहनो होइत जे खेतीक संग माछो आ दूधोक चर्च उठि‍ जाइत। भनडाराक भजनमे जहि‍ना कतौ साखीसँ भजन शुरू होइत तँ कतौ भजनक बीच-बीचमे, तँ कतौ साखि‍येसँ वि‍सर्जनो होइत।
तहि‍ना लाल काकीक सेहो छन्‍हि‍‍। लफ सागक संग लाल काकीक सि‍नेह खाली सि‍नेहे नै जि‍नगी सेहो ओहन छन्‍हि‍ जेहन वैवाहि‍क बंधन होइत। जहि‍ना कनाह-खोरसँ लऽ कऽ दि‍बड़ा भीड़मे बसैबलाक संग एकसँ एक देवसुनरि‍ अपन जि‍नगी समर्पित कऽ अपन कुल-खनदानक संग समाजक पाग मुरेठा सम्‍हारि‍ रखैत तहि‍ना लाल कािकयो छथि‍ये।

जइ दि‍न लाल काकी सासुर एली तही दि‍नसँ लफ साग सेहो संगे-संग एलनि‍। दुरागमन भेलापर जखन लाल काकी सासुर वि‍दा हुअए लगली तँ सतरि‍या धान खोछि‍मे दइले जे राखल रहनि‍ तहीमे लफ सागक बीआ छि‍पा कऽ ओही धानमे ई सोचि‍ मि‍ला लेलनि‍ जे जँ कागजक पुड़ि‍यामे वा लत्तामे बान्‍हि‍ राखब तँ खोछि‍ भरनि‍हारि‍ देखि‍ये जेतीह, जखने देखती तँ खोलबे करती। जखने खोलती आ सागक बीआ देखती तँ हो-ने-हो डाइन-जोगि‍नक फसाद ने कहीं उठि‍ जाए। नि‍छौहैमे कनी समयै ने लगत मुदा कि‍यो बूझत तँ नै। सएह केलनि‍। सागक बीआ नैहरसँ सासुर अनैक कारणो रहनि‍। जहि‍ना हजारोक भीड़मे प्रेमीक नजरि‍ प्रेमि‍कापर रहैत तहि‍ना लाल काकीक प्रेमी साग तँए संग नै छोड़ए चाहथि‍। ओना मनमे ईहो होइत रहनि‍ जे अनेरे कि‍अए सागेक बीआ लऽ जाएब, जइ गाम जाएब तोहू गामे तँ लफ साग होइते हेतै, मुदा मन नै मानलकनि‍। मनोक मानब तँ साधारण नहि‍ये अछि‍। भलहिं साधारणो बात वा काज कहि‍ मना लेब, ई अलग अछि‍। लाल काकीक मन ऐ दुआरे नै मानलकनि‍ जे गाम-गाममे जहि‍ना धानक खेती होइतो एकरंगाहो धान होइत आ नहि‍यो होइत। तहि‍ना ने सागोक अछि‍, कतौ मतौना, ढेकी साग होइत तँ कतौ पालक-ठढ़ि‍या। कतौ ललका ठढ़ि‍या तँ कतौ हरि‍अरका। कतौ उजड़ा भुल्‍ला होइत तँ कतौ सतरंगा सेहो होइत। तँए जहि‍ना गाम-गामक पानि‍, तहि‍ना वाणि‍, तहि‍ना खेती तहि‍ना बाड़ी तहि‍ना झाड़ी, तहि‍ना फुलवाड़ी तहि‍ना ने आनो-आन होइत। तँए कोनो जरूरी नै अछि‍ जे लफ साग ओहू गाममे होइते हेतै। जँ नै होइत हेतै तँ लल्‍लो-वि‍हल्‍लो भऽ जाएब। लइये जाइमे की लागत बूझब जे धाने अछि‍। यएह सब सोचि‍ लाल काकी जहि‍ना तीर्थस्‍थानक यात्री पनपीबा बर्तनक संग सि‍दहो-समर संगे लऽ चलैत तहि‍ना लफ सागक बीआ सेहो लऽ लेलनि‍।
लफ सागक गुण लाल काकीकेँ बूझल रहनि‍। कि‍एक तँ नैहरोमे बेसी काल खेबो करथि‍ आ उपजेबो करथि‍। खेति‍यो हल्‍लुक। जखन सागक गाछ जुआ जाइत तखन ओइमे फड़ल बीआ सेहो रसे-रसे पाकि‍ जाइत। जहि‍ना बुढ़-बुढ़ानुसक वि‍चार बि‍नु पुछनौं फूटि‍-फूटि‍ झड़ए लगैत तहि‍ना सागोक बीआ गाछक आशा छोड़ि‍ खापड़ि‍क लाबा जकाँ चनकि‍-चनकि‍ बहरा जाइत। कतबो पानि‍-पाथर बरसौ आकि‍ ठनका खसौ पृथ्‍वीक कोरामे छअ मसि‍या बच्‍चा जकाँ माइक छातीमे सूति‍ रहैत तहि‍ना सागोक बीआ सूति‍ रहैत। मुदा अचेतन रहि‍तो चेतन भऽ ओइ दि‍न फुड़फुड़ा कऽ उठि‍ जाइत जइ दि‍न उठैक समए होइत। तँए कि‍यो बीआ जोगा समैपर खेतकेँ तामि‍-कोरि‍ बागु करैत तँ नहि‍यो बागु केने ओइ खेतमे अपनो उगि‍ जाइत जइमे पछि‍ला साल भेल रहैक।
लफक सागमे लाल काकी जहनि‍क कारण छन्‍हि‍ जे ओ जनै छथि‍ जे जइठाम लोक नून-भात आकि‍ नून-रोटी खा जीवन बसर करैत अछि‍ तइठाम जँ चारि‍टा लफ सागक पत्ताकेँ एकलोटा पानि‍मे कनी नून दऽ मेरचाइक फाेरनसँ फोरना देबै तँ तेहेन सि‍नेही भऽ भात-रोटीमे सटि‍ ओहन गति‍ पकड़ि‍ लैत जेना खाली सड़कमे बाहन धड़ैत। चारि‍ये पातक मेजनक संग अाधा कि‍लो मीटर ससारि‍ लि‍अ।
जि‍नगीक संग पुरनि‍हार साग अपन कथा-बेथा ललकारी छोड़ि‍ केकरा लग बाजत। जे ओकरा दि‍स घुमि‍यो कऽ ने तकैए तेकरा कहि‍ये कऽ की हेतै। खेतक आड़ि‍पर पहुँचते भुखाएल नेरू-पर्ड़ू जकाँ लालोकाकीकेँ साग कहैत-
काकी, आइ नइ हजारो बर्खसँ गेनहारी बथुआ-नोनी इत्‍यादि‍ संगे-संग चलैत एलौं कि‍यो हवाइ जहाजपर भोज-भात करैए मुदा हमरापर कि‍अए ने ककरो नजरि‍ पड़लै। जँ नजरि‍ पड़ल रहि‍तै तँ एहि‍ना धरती धेने रहि‍तौं।
सागक दुखनामा सुनि‍ लाल काकी वि‍ह्वल भऽ कहलखि‍न-
बहीन, कि‍यो अपना भागे-करमे जीबै-मरैए। तइले अनेरे कि‍अए दुख करै छह। जइ दि‍न उपटि‍ जेबह तइ दि‍न बुझि‍हक जे या तँ ई धरती नै रहए दि‍अए चाहैए वा ई धरती रहै जोकर नइए।
साग बाजल- लाल काकी, लोक बड़ कुभेला करैए। नै तँ कहू जे सि‍मटीक अांगन-घर बना कऽ रहैए आ हमरो जँ अखारमे कनी माटि‍ छि‍ड़ि‍या सि‍मटीक अंगनोमे आकि‍ छज्‍जि‍योपर लगा देत तँ कि‍ अासीन-काति‍क तक भाँज नउ पुरबै। मुदा आने साग जकाँ जे फुटा देत जे ई गरमीक छी तँ ई जाड़क। भदवारि‍मे साग खेबोक नै चाही से कहू जे ई होइ?”
सान्‍त्वना दैत लाल काकी कहलखि‍न-
अइले कि‍अए दुख करै छह, तोहर तँ मान-मरजादा एते छह जे बि‍नु तोरे अपन माइयो-बापक उद्धार नै कऽ सकैए। करह दहक जते कुभेला करतह से करह।

मि‍थि‍लांचलक भोज जहि‍ना अदौसँ आइ धरि‍क भोजनक इति‍हास अपना पेटमे समेटने अछि‍ तहि‍ना गामो ने समेटने अछि‍। एक दि‍स भात दालि‍क संग तरकारी, तइ संग संग पानि‍मे बनल अदौरी, तँ तेलमे बनल बर-बरीक संग, दही-चि‍न्नीक संग वि‍सर्जन होइत। जे भोज्‍यक इति‍हास प्रदर्शित करैत तहि‍ना बाधक बनल रखबारक खोपड़ीक संग बहुमंजि‍ला मकानक बीच आदि‍क मनुखसँ लऽ कऽ सभ्‍य -आधुनि‍क- मनुष्‍य तकक इति‍हासक झलकी सेहो दैत अछि‍।
जइ दि‍न लाल काकी सासुर एली तइ दि‍न ओ पनरहे-सोलहे बर्खक रहथि‍। आने-आन जकाँ दुइये बर्खक पछाति‍ पति‍केँ मुइने वि‍धवा भऽ गेली। मुदा दुइये बर्खक अभि‍यन्‍तर लाल भौजी, लाल काकी, लाल दादीक माला समाज पहि‍रा देलकनि‍। एकोटा संतान नै भेल छलनि‍। जइ दि‍न पति‍ मुइलनि‍ तइ दि‍न एहेन ओझरीमे लाल काकी ओझरा गेली जे भरि‍ पोख कानि‍यो नै सकलीह। ओझरी लगलनि‍ जे जइ समाजमे वैधव्‍य बान्‍ह एते सक्कत अछि‍ जे ता-जि‍नगी वैधव्‍य धारण केने रहैत। तइपर अशुभक उपराग ऊपरसँ। मुदा कि‍ समाज ई भार लइए जे ओकर जि‍नगी इज्‍जतक संग केना चलतै। जे समाज केकरो जीवन नै दऽसकैए कि‍ ओइ समाजकेँ केकरो ओङरी बतबैक अधि‍कार छै? वि‍धवाक संग जे-जे कि‍रदानी समाज करैत आएल अछि‍ आ कइयो रहल अछि‍ कि‍ ओ समाज सामाजि‍क बंधन बनबैक अधि‍कार रखैए? नारी जागरणक लेल ओकर सुरक्षाक पक्का बेवस्‍था सेहो हेबाक चाही जँ से नै तँ ने ओ परि‍वारक संग अपन प्रति‍ष्‍ठा बचा सकैए आ ने बाहर बचा सकैए।

पति‍क परोछ भेलापर माइयो-बाप आ सरो-समाज लाल काकीकेँ कतबो हि‍लौलखि‍न-डोलौलखि‍न, मुदा लाल काकी अड़ि‍ गेलखि‍न जे समाजमे हमरा सन बहुतो छथि‍, जहि‍ना हुनका सबहक जि‍नगी कटतनि‍ तहि‍ना हमरो कटत। जते भोग-पारसमे छल तते भोगलौं आ माँ मि‍थि‍लाक फुलवारी छाेड़ि‍ कतौ ने जाएब। जखन अपने हँसुआ, खुरपी कोदारि‍ चलबैक लूरि‍ अछि‍, तखन कतौ रहि‍ जीवन-यापन कऽ सकै छी। अपन मान-मर्यादा अपने नै बि‍गाड़ब।

अस्‍सी बर्ख पार केलापर लाल काकीक नजरि‍ ओइ दि‍स गेलनि‍ जे-जे नजरि‍सँ देखने रहथि‍। नजरि‍सँ नजरि‍ मि‍लाएब, टकराएब दुनू होइत तहि‍ना लाल काकीक मनमे सेहो उठलनि‍। एहेन नि‍चेनसँ जि‍नगीमे कहि‍यो बैसबो ने कएल रहथि‍ जे बुझबो करि‍तथि‍ आ सोचबो करि‍तथि‍। जइ ि‍जनगीमे बुधि‍-वि‍चार जँ जि‍नगीक संग नै चलत ओ जि‍नगि‍ये केहेन? गुनधुनमे पड़ल एकटा मन कहलकनि‍-
हमरा सन-सन लोकक लेल जे बेवहार चलि‍ रहल अछि‍ ओकर नि‍मरजना के करत?”
दोसर मन उत्तर देलकनि‍-
जे नि‍मरजना करैबला छथि‍ ओ अपने चालि‍ये ओंघराएल छथि‍ तखन अनका कि‍ देखथि‍न। पछि‍म मुहेँक गाड़ी पकड़ि‍ पूब मुहेँ जाए चाहै छथि‍, से केना हेतइ।
मनक घाेंघौज देखि‍ लाल काकी काल्हि‍ये जे ओराहैले बदाम अनने रहथि‍, ओराहैले वि‍दा भेलीह।   
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